आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला

यह पूरी पारदर्शी प्रतिक्रिया नीचे दिखाये गये प्रचारपत्र मे प्रयुक्त शब्दों और विराम-विरामेतर (‘विरामेत्तर’ अशुद्ध है।) चिह्नो के संदर्भ मे की गयी है। यह पढ़े-लिखे लोग का ‘विश्व हिन्दी संगठन’ है; परन्तु भाषाबोध के नाम पर “ज़ीरो बटे सन्नाटा” (०/.. ) दिख रहे हैं। इन सभी को ‘डॉ.’ और ‘प्रो.’ लिखने का बहुत शौक है; लेकिन ‘डॉ.’ और ‘प्रो.’ को कैसे लिखा जाये, इसकी समझ बिलकुल नहीं है। इतना ही नहीं, देश मे तरह-तरह के जितने भी ‘डॉक्टर’ और ‘प्रोफ़ेसर’ हैं, उनमे से लगभग सभी ‘डॉक्टर’ और ‘प्रोफ़ेसर’ का लघ्वक्षर (‘लघ्वाक्षर’ अशुद्ध है।) शुद्ध लिख नहीं पाते और जो अशुद्ध लिखे रहते हैं, उन पर सकारण प्रकाश डालने मे वे सभी ‘दिव्यांग’-से दिखते हैं।
इस कथित संगठन के आयोजकों का एक नया प्रयोग देखिए– ‘अमृत महोत्सवीं’ वर्ष ।

इसका मतलब यह हुआ कि ‘उत्सव’ पुरुष है और ‘उत्सवीं’ उसकी स्त्री? यह वही हाल है, जब हमारे पत्रकार बन्धु ‘एक दिन’ के साथ अपना ‘निरीह’ बलप्रयोग करते हुए ‘एक दिनी’ को जन्म देते हैं।

अशुद्ध प्रयोग— ‘: डॉ. : प्रो. : आभार ज्ञापन :
: संयोजक : डॉ. राधा भारद्वाज को ‘संयोजक’ के स्थान पर ‘संयोजिका’ लिखना चाहिए था। संयोजक कोई अधिकृत पदनाम नहीं है।) जिन महिलाओं के चित्र के नीचे ‘वक्ता’ लिखा है, वहाँ ‘वक्त्री’ होगा।

आश्चर्य की बात है कि यहाँ जितने भी कथित डॉ. और प्रो. दिख रहे हैं, वे आत्मसुधार करने के प्रति विश्वास नहीं करते।

ऐसे लोग हमारी समूची पीढ़ी को बरबाद करने के लिए पूर्णत: उत्तरदायी हैं। न जाने कितने वर्षों से बताया-समझाया जा रहा है कि डॉ०, प्रो० लिखने का स्वभाव बनाओ; मगर कुत्ते की पूँछ ‘टेढ़ी-की-टेढ़ी’।

ऐसे महापुरुष और महामहिलाओं की मनोवृत्ति पर दया आती है और आक्रोश भी उभरता है। हर माह ये लोग लाखों रुपये वेतन पाते हैं; मगर भाषाज्ञान के नाम पर ‘शून्य’ (०) दिखते हैं। पहले इन सभी को विद्यार्थी बनना पड़ेगा, अन्यथा इन सभी मे सुधार की कहीं कोई सम्भावना नहीं दिखती।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २९ जुलाई, २०२२ ईसवी।)