सायं सवा सात बजे के लगभग वे छात्राएँ, जिन्होंने लगातार तीन दिनों तक गुरु का सान्निध्य ग्रहण किया था, उनमे से कुछ अकस्मात् गुरु के प्रवासस्थल पर पहुँच गयीं। सभी ने डाइट के उपशिक्षानिदेशक एवं प्राचार्य महेन्द्र कुमार सिंह जी से एक स्वर में पूछा– गुरु जी कहाँ हैं। दूसरी ओर, उन सभी के गुरु जी प्रयागराज-वापसी की तैयारी में लगे थे; परन्तु उनका समवेत स्वर गुरु तक सम्प्रेषित हो चुका था; अन्तत:, पूर्ण तैयारी के बाद गुरु जी उस कक्ष में पहुँचे, जहाँ सभी छात्राएँ व्यग्रतापूर्वक ‘अपने गुरु’ की प्रतीक्षा कर रही थीं।
एक स्वर में सभी “गुरु जी प्रणाम” का वह अभिवादन, जिसे गुरु जी तीन दिनों तक ”सर नमस्ते”, ”नमस्ते सर”, ”प्रणाम सर”, ”प्रणाम गुरु जी” आदिक के संशोधन कराते रहे, प्रत्यक्ष होता रहा और वातावरण मे शैक्षिक रस घोलता हुआ-सा अनुभव होता रहा।

सभी के हाथों में ‘गुरुदक्षिणा’ :– चित्र, पुष्पगुच्छ, लेखनी आदिक के रूप में अपने गुरु का शिष्यत्व ग्रहण करने का प्रमाण-प्रसाद उनके मुखमण्डल की तेजस्विता के रूप मे अपना प्रभाव विकीर्ण करता हुआ-सा लक्षित हो रहा था।
सभी एक-एक कर और सामूहिक रूप से ‘उपर्युक्त’ गुरुदक्षिणा भेंट करती रहीं और मुखमण्डल गौरवान्वित होता रहा; गुरु के मुखमण्डल पर अपनी शिष्याओं की श्रद्धा, विश्वास तथा भक्ति के प्रति औदार्य का भाव खेलता-सा अनुभव होता रहा, जिसका वर्णन कर पाना, ‘हस्तामलक’ नहीं।
‘कार’ प्रवेशद्वार के बाहर प्रतीक्षा मे मौन खड़ी थी। छात्राएँ समीप तक आ चुकी थीं; कारुणिक विदा-बेला समीप थी। विदा तो होना ही था; स्मृति साथ-साथ चलती रही और कार के पहिये भी; देखते-ही-देखते, ‘जयपुर-प्रयागराज सुपरफास्ट’ ‘मथुरा’ स्टेशन को छोड़ती रही और प्रयागराज को आलिंगनबद्ध करने-हेतु इतनी आतुर रही कि अपनी गति में वृद्धि करती रही; अन्तत:, उसका अन्तिम पड़ाव आ पहुँचा।