डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-
मनुष्य-जीवन को चौरासी लाख योनियों में उत्कृष्ट माना गया है। तर्क उपस्थित किया जाता है कि मनुष्य के पास विवेक है। उपदेशक बताते हैं कि ‘मानव-योनि’ ही ऐसी है, जिसमें ‘विवेक’ का भण्डार है; पशु-पक्षी, जन्तुओं आदिक में ‘विवेक’ नहीं होता। बाबा तुलसी दास भी गा रहे हैं— बड़े भाग मानुस तन पावा।
हमने अपनी तथ्यशाला और तर्कशाला में सम्पूर्ण योनियों में से एक-एक प्रतिनिधि को सादर निमन्त्रित किया था।
सबसे पहले हमने साँप-बिच्छू, गोजर आदिक को प्रमुख भूमिकाओं में अपनी प्रयोगशाला में बुलाया और स्थायी ‘पर्यवेक्षक’ के रूप में सामने की ओर ‘मनुष्य’ को मंचस्थ कर दिया था। उस पर्यवेक्षक मनुष्य से हमने स्पष्टत: कह दिया था,”आप चुपचाप सभी की गतिविधियों का पर्यवेक्षण करते रहिएगा; आपको शान्तिपूर्वक अपने स्थान पर बैठे रहना है। हिंस्र जीव-जन्तु भी आपकी कोई क्षति नहीं कर पायेंगे।” उस मनुष्य ने जब मुझे ‘लिखित’ रूप में आश्वस्त कर दिया था तब हमने अपनी गतिविधि आगे बढ़ायी थी।
निमन्त्रित साँप-बिच्छू आदिक अपने स्वाभावानुसार रेंगने लगे। वे रेंगते-सरकते पर्यवेक्षक ‘मनुष्य’ की ओर भी बढ़ने लगे फिर जैसे ही वे दूसरी दिशा की ओर मुड़े, उस मनुष्य ने लपक कर, पास रखी लाठी उठाकर उन निर्दोष जन्तुओं पर प्रहार करने को उद्यत ही हुआ था कि हमने उछलकर उसके हाथों से लाठी छीन ली।
हमने शेर, बाघ, लक्कड़बघ्घा आदिक को बुलाया। पर्यवेक्षक मनुष्य भी बैठा हुआ था। शेर, बाघ आदिक ‘रैम्प’ पर ‘कैट वाक’ करने की शैली में बढ़ते रहे और मनुष्य कँपकँपाता रहा। शेर, बाघ आदिक मस्ती के साथ उस पर्यवेक्षक मनुष्य की ओर बढ़कर लौटने को ही हुए कि अकस्मात् उसने पास ही में रखी गोलीभरी बन्दूक उठा ली। इससे पहले कि वह ‘स्ट्रिगर’ दबाता कि हमने उसे रोक लिया।
इसी तरह से हमने बहुत सारी योनियों के चरित्र प्रदर्शित किये और पर्यवेक्षक मनुष्य अपनी हरकतें करता रहा।
कुत्ते की बारी थी। कुत्ता ख़ूबसूरत था। जैसे ही वह आया, पर्यवेक्षक मनुष्य से रहा नहीं गया। उसकी जेब में बिस्किट का एक पैकेट था। आनन-फानन पैकेट को फाड़कर बिस्किट के टुकड़े दिखाते हुए खड़े होकर टाँगे बढ़ाते हुए, मचलते हुए बोलने लगे, “तू.. तू..तू..तू.. आजा मेरा डॉगी! तेरे लिए बिस्किट लाया हूँ; ले खा!”
कुत्ता लपक कर पर्यवेक्षक मनुष्य की टाँगों से लिपट गया; उछलकर उनके हाथों से बिस्किट का पैकेट लपक लिया। इसी लपका-लपकी में कुत्ते ने मनुष्य के दायें कपोल को बकोट लिया। मनुष्य स्वयं को सँभाल नहीं पाया और नीचे भहरा गया। ख़ैर, हमने आश्वस्त किया; समझाया-बुझाया और सब सामान्य हो गया।
उस मनुष्य के चेहरे की उदासी दूर करने के लिए, हमने मयूरी, खरगोश, बुलबुल, मैना, कोयल, कपोत, पपीहा, राजहंस आदिक को आवाज़ दी; फिर क्या था, सभी अपने-अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करने लगे। दुग्ध-वर्णवाले खरगोश की मनोहारी छलाँग का द्रुत वेग, “पी! कहाँ-पी-कहाँ” का आर्त्त आमन्त्रण स्वर, शान्तिदूत का फफड़ाना, राजहंस का नीर-क्षीर विवेक, बुलबुल और मयूरी की सम्मोहक जुगलबन्दी मन-प्राणों को रसप्रियता में पगा-पगा ऐन्द्रियिक तत्त्वों को कामातुर बना रही थी, मानो सम्पूर्ण परिवेश पर श्रृंगारप्रियता और मन्त्र-मुग्धता का वितान तन गया हो।
उस पर्यवेक्षक मनुष्य से रहा नहीं गया और वह लपककर मयूरी के पास आ गया; उसके साथ छेड़ख़ानी करने लगा; पंख उखाड़ने लगा; फिर क्या था, सारे पक्षी घबराकर ‘नेपथ्य’ में चले गये।
हमने उस मनुष्य को अलग से बुलाकर फिर समझाया। उसने आश्वस्त किया।
इस बार हमने दो मनुष्य और दो बन्दर को बुलाया। पहला मनुष्य वास्तव में, बहुत ही कष्ट में था; उसके आँसू थमते-नहीं-थमते थे। दूसरा मनुष्य पाश्चात्य सभ्यता में नख-शिख रँगा स्वघोषित आभिजात्य के रूप में स्वयं को दर्शाने का प्रयास कर रहा था। वहीं पर्यवेक्षक मनुष्य अपनी कोट की बायीं ज़ेब को उलटकर उस दीन-हीन मनुष्य को, ‘कुछ नहीं है’ का अनुभव कराने के लिए, दिखा रहा था।
अकस्मात् वहाँ से सब कुछ तिरोहित हो जाता है; और यहाँ से इस आयोजन का यह सूत्रधार ‘दर्शक-दीर्घा’ की ओर मात्र एक प्रश्न उछाल कर अन्तर्हित हो रहा है— क्या सचमुच, मनुष्य मानवेतर योनियों में सर्वाधिक उत्कृष्ट और विवेकवान् है?
(डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, भाषाविद् इलाहाबाद- prithwinathpandey@gmail.com, यायावर भाषक-संख्या : ९९१९०२३८७०, (9919023870), यायावर भाषक-संख्या : +91-9125434156, +91-9919023870)