‘बेबिनार’ का प्रयोग कर, भाषिक वातावरण विषाक्त करनेवालो! उत्तर दो

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

न्यूइण्डिया के उन लोग के नाम एक विश्व-कीर्तिमान है, जो स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा पढ़ा-लिखा मानते और समझते हैं; और वह है, नक़्लची बनने का। दूसरी ओर, ‘भारत’ की मिट्टी में इतनी अधिक मौलिकता भरी हुई है, जितनी कि किसी भी देश में नहीं है। खेद है, न्यूइण्डिया के ऐसे लोग के दृष्टिबोध में समृद्धि और सम्पन्नता नहीं है; क्योंकि उनकी दृष्टि बदलती रहती है। हमारी लिपि और भाषा इतनी अधिक उन्नत है, जितनी विश्व की अन्य कोई भाषा नहीं, फिर भी उक्त प्रकार के लोग की स्थिति ‘भिखारी’-जैसी बनी हुई है। कहा भी तो गया है– जो घर की स्वस्थ सजीवता-निर्जीवता को ठोकर मारकर बाहर मुँह मारने लगता है, वह एक दिन दुर्दिन को प्राप्त करता है; दुरवस्था जीने के लिए विवश हो जाता है।
हमारे देश के पढ़े-लिखे-कढ़े-गढ़े लोग आपसी विचार-विमर्श, संगोष्ठी आदिक का अब ‘बेबीनार’/’बेबिनार ‘ के नाम से महिमामण्डन कर रहे हैं।

उन सभी से मेरे खुले प्रश्न हैं– बेबिनार की अवधारणा क्या है? यह किस भाषा का शब्द है? इस निरर्थक शब्द के प्रयोग करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? परिसंवाद, संगोष्ठी, विमर्श आदिक के प्रयोग करने से आप लोग की इज़्ज़त धुल जाती है?

धिक्कार है, ऐसे लोग को, जो मातृभाषा का अनादर कर, झूठन बटोरने में लगे हुए हैं। हिन्दी की कृपा से अपने पदों पर पहुँचे हैं; उसी की अनुकम्पा से अपने और अपने परिवार को जिलाते आ रहे हैं तथा उसी के कारण आज समाज में अपना ‘गिरगिटिया’ स्थान बनाये हुए हैं। अब अपनी उसी हिन्दी को भूल गये हैं। बार-बार धिक्कार है, ऐसे लोग को।

यहाँ मैं सुस्पष्ट कर दूँ कि कथित ‘बेबिनार’ को प्रश्रय देनेवाले वही लोग हैं, जो शुद्ध दस वाक्य न तो देवनागरी लिपि– हिन्दी में लिख सकते हैं और न ही रोमन–अँगरेज़ी में।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ९ जून, २०२० ईसवी)