सई नदी की करुण कथा : पौराणिक और ऐतिहासिक नदी मर रही है

आख़िर इस तरह की तटस्थता से क्या साबित हो रहा है?

—सन्त समीर (वरिष्ठ पत्रकार व प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के जानकार)

पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि युद्ध रुके, लेकिन सवाल है कि कैसे। जवाब भी साफ़ है कि नाटो देशों का सरदार अमेरिका रूस को बस एक पङ्क्ति का भरोसा दे दे कि यूक्रेन को नाटो की सदस्यता नहीं दी जाएगी और नाटो देश रूस की स्वतन्त्रता और सम्प्रभुता के लिए कोई ख़तरा नहीं पैदा करेंगे। यह बात जायज़ है, क्योंकि जब रूस नाटो की घेराबन्दी नहीं कर रहा है तो नाटो को भी आख़िर क्यों रूस को घेरने की मुहिम चलानी चाहिए? परेशानी यह है कि अमेरिका की मंशा शुरू से ही युद्ध रोकने की नहीं, बल्कि भड़काने की रही है। यूक्रेन को कई वर्षों से वह चने की झाड़ पर चढ़ाने में लगा रहा है। कुछ यों कि यूक्रेन तुम सङ्घर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं; और जब सङ्घर्ष शुरू हुआ तो कह दिया कि हम मैदान में नहीं उतरेंगे, बस युद्ध के साजो-सामान भर दे देंगे। अमेरिका को पता है कि इससे उसका काम भी बन जाएगा और जो नुक़सान होगा, यूक्रेन का होगा। यह युद्ध रूस-यूक्रेन के बीच नहीं, वास्तव में रूस-अमेरिका के बीच है। अमेरिका की आदत ही है कि वह अपनी धरती को बचाकर दूसरे देशों की धरती पर युद्ध लड़ता है।

ऐसे में सवाल है कि भारत को क्या करना चाहिए। यह ठीक है कि हाल के वर्षों में दुनिया के नक़्शे में भारत की हैसियत कुछ तो बढ़ी है, पर सच्चाई यही है अभी भारत की ताक़त इतनी नहीं है कि वह खुलेआम किसी को धमका सके। भारत की हैसियत का इसी से अन्दाज़ा लगता है कि हम आज भी पिद्दी-से पाकिस्तान से अपनी तुलना करते रहते हैं और पाकिस्तान है कि आज भी हमें आँख दिखाता रहता है।

मेरा मानना है कि बहुत मज़बूत स्थितियाँ न हों तो भी सम्भावनाएँ कमज़ोर नहीं होतीं। भारत सदाशयता वाली कूटनीति कर ही सकता है। यह उसके स्वभाव के भी अनुकूल है। इस हिसाब से देखें तो युद्ध छिड़ने के बाद शुरू के एक-दो दिनों के लिए तटस्थ नीति अपनाने की दृष्टि से भारत का बयान ठीक था कि बातचीत के ज़रिये युद्ध का हल निकाला जाना चाहिए, पर जैसे-जैसे समय बीत रहा है, वैसे-वैसे भारत की विदेश नीति लचर और कमज़ोर दिखाई दे रही है। शायद हमारे नेता किङ्कर्तव्यविमूढ़ता वाली स्थिति में भी हैं।

आख़िर इस तरह की तटस्थता से क्या साबित हो रहा है? इस तटस्थता की सीमा क्या होगी? समझने की बात है कि कहीं ऐसी तटस्थता अमेरिकी मनसूबों को कामयाबी की तरफ़ ले जाने का काम तो नहीं कर रही है? हम अच्छी तरह जानते हैं कि हमारी तटस्थता से अमेरिका हमसे प्रसन्न नहीं हो जाएगा। अमेरिका प्रसन्न हो जाए तो भी इतिहास गवाह है कि ज़रूरत पड़ने पर वह हमारे साथ कम पाकिस्तान के साथ ज़्यादा खड़ा नज़र आएगा। अमेरिका, चीन और पाकिस्तान जैसे देशों पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। ये जितनी बड़ी क़समें खाते हैं, कुछ दिनों बाद उतने ही बड़े झूठे साबित होते हैं। भारत में होने वाली छोटी-मोटी घटनाओं से लेकर धारा 370 हटाए जाने तक में अमेरिका की दोगली चाल का सच बताने की ज़रूरत नहीं है। ठीक इसके उलट, रूस हर परिस्थिति में भारत के साथ खड़ा दिखाई देता रहा है। भूलना नहीं चाहिए कि जब पाकिस्तान के पक्ष में अमेरिका युद्ध लड़ने की तैयारी कर रहा था तो रूस ने ही उसे भागने पर मजबूर किया था। चाहता तो रूस भी तटस्थ रहने का बयान देकर किनारे खड़ा रह सकता था।

इसका अर्थ यह भी नहीं है कि भारत युद्ध का समर्थन करके यूक्रेन के ख़िलाफ़ कदम उठाए। भारत के पास महात्मा गान्धी नाम का एक प्राणी रहा है, जिसको इस देश ने राष्ट्रपिता माना है और आज भी किसी भी पार्टी का काम उसके नाम की दुहाई दिए बिना नहीं चलता। क्या गान्धी का नाम बस ‘राम-नाम’ की तरह रटने के लिए है? ऐसी विषम परिस्थितियों में हमारे नेताओं को चन्द पल ठहर कर सोचना चाहिए गान्धी होते तो क्या क़दम उठाते। गान्धी-जैसा न सही, पर उसके आसपास का एक पारदर्शी चरित्र तो हम दिखा ही सकते हैं। मुझे तो लगता है कि अगर हम ज़रा भी गान्धी की राह पकड़ें तो हमें रूस-यूक्रेन युद्ध में भी कूटनीति का कोई छद्म रूप अपनाने की ज़रूरत नहीं है। भारत स्पष्ट रूप से कह सकता है—
“हम युद्ध के ख़िलाफ़ हैं, पर हम इसका भी समर्थन नहीं करते कि नाटो की सेनाओं द्वारा रूस की बेवजह घेराबन्दी की जाए। नाटो देशों को चाहिए कि वे युद्ध रोकने की ईमानदार कोशिश करें। अगर वे सचमुच युद्ध रोकना चाहते हैं तो उन्हें रूस को सबक़ सिखाने वाले उकसावे भरे बयान देने के बजाय रूस को आश्वस्त करने वाले बयान देने चाहिए कि रूस की सुरक्षा के लिए वे कोई ख़तरा खड़ा करने नहीं जा रहे। यूक्रेन की मुश्किलों को समझना ज़रूरी है, पर रूस की आपत्तियों को भी शिद्दत से सुना जाना चाहिए।”

जब नाटो बनाया ही गया है रूस के ख़िलाफ़, तो रूस की यह माँग भी जायज़ ही कही जाएगी कि नाटो की सेनाएँ उसकी सीमा पर जमावड़ा न करें। भारत अमेरिका को सदाशयता के साथ याद दिलाने का काम कर सकता है कि रूस को सबक़ सिखाने वाले अमेरिका के बयान शान्ति नहीं, बल्कि युद्ध का उकसावा दिखाई देते हैं, जबकि अमेरिका को शान्ति पैदा करने की दिशा में काम करना चाहिए।

भारत के साथ रूस की मित्रता कोई छिपी हुई बात नहीं है, इसलिए भारत को स्पष्ट कहना चाहिए—“रूस के साथ हमारी मित्रता स्पष्ट है, इसलिए रूस को हम यों ही दरकिनार नहीं कर सकते, पर हम यह भी नहीं चाहेंगे कि युद्ध जैसी परिस्थितियाँ पैदा हों और यूक्रेन में निर्दोष लोग मारे जाएँ। युद्ध आपद्धर्म हो सकता है, पर यह किसी समस्या का निरापद समाधान नहीं है।”

बहरहाल, सौ की एक बात यह है कि भारत को शक्तिशाली बनने का सबक़ लेने की अब सख़्त ज़रूरत है। यहाँ भी गान्धी सबसे अच्छे मार्गदर्शक हो सकते हैं। गान्धी ने 4 अगस्त, 1920 को ‘यङ्ग इण्डिया’ में लिखा था—‘‘समूची प्रजाति के नपुंसक हो जाने का ख़तरा उठाने के मुक़ाबले मैं हिंसा को हज़ार गुना बेहतर मानता हूँ।’’

दुर्भाग्य से हमारे रहनुमाओं और गान्धीवादियों ने गान्धी की अहिंसा को नपुंसकता का पर्याय बना दिया। गान्धी ने सन् 1918 के एक पत्र में लिखा था—‘‘…एक राष्ट्र की हैसियत से हम मारने की सच्ची शक्ति खो बैठे हैं। यह तो स्पष्ट है कि जो मारने की शक्ति गँवा बैठा हो, वह अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। अहिंसा में ऊँचे प्रकार का त्याग समाया हुआ है। जो जनता कमज़ोर और कायर हो गई हो, वह त्याग का आचरण नहीं कर सकती। ठीक वैसे ही, जैसे चूहे के लिए यह नहीं कहा जा सकता कि उसने बिल्ली को मारने की शक्ति का त्याग किया है। यह बात भयङ्कर भले लगे, पर बिलकुल सच है कि हमें अनवरत और सायास विचारपूर्वक इस शक्ति को पुनः प्राप्त करना होगा और उसे प्राप्त करने के बाद ही हम स्वयं इस शक्ति का सतत त्याग करके हिंसा की यातनाओं से दुनिया को मुक्त कर सकेंगे।’’

यह ठीक है कि हाल के कुछ वर्षों में भारत का रुतबा कुछ बढ़ा है, पर ज़्यादा बड़ी सच्चाई यही है कि आज़ादी के बाद हम बस गान्धी का नाम भर लेते रहे और गान्धी की अहिंसा को अपनी नालायक़ी का आवरण बनाते रहे। गान्धी की अहिंसा वीरों का आभूषण है, कायरों का नहीं। गान्धी की भाषा में कायर कभी अहिंसक नहीं हो सकता। गान्धी ने कभी कहा था—‘‘प्राचीन हिन्दुस्तान के लोग युद्धकला जानते थे—उनमें हिंसा करने की शक्ति थी—किन्तु उन्होंने इस प्रवृत्ति को यथाशक्ति अधिक से अधिक कम किया और दुनिया को सिखाया कि मारने से न मारना ज़्यादा अच्छा है। आज तो मैं देखता हूँ कि हर एक आदमी की इच्छा मारने की तो है, परन्तु बहुत से लोग वैसा करने से डरते हैं अथवा उसकी शक्ति ही नहीं रखते। परिणाम कुछ भी हो, किन्तु मेरा निश्चित विचार है कि मारने की शक्ति तो हिन्दुस्तान को फिर से प्राप्त कर ही लेनी चाहिए।…’’

गान्धी के नाम पर शान्ति की दुहाई देने वालों को चाहिए कि वे पहले इस देश को विज्ञान, तकनीकी और सैन्य दृष्टि से अतिशय शक्तिशाली बनाने के काम में लगें और शक्ति हासिल करने के बाद शान्ति का सन्देश दें, तो उसे दुनिया अनसुनी नहीं कर पाएगी। खेल शक्ति का है। बग़ैर शक्ति-साधना के शान्ति-साधना सम्भव नहीं। शक्ति-साधना का अब राष्ट्रीय अनुष्ठान चाहिए।

यह बात हमें समझ में आ जानी चाहिए कि रूस-यूक्रेन के सन्दर्भ में भारत के बयानों का एक सङ्केत यह भी है कि हम अभी उतने मज़बूत नहीं हुए हैं कि दुनिया को कोई मज़बूत सन्देश दे सकें।

(जिन मित्रों ने मेरी परसों की पोस्ट नहीं पढ़ी है, उनसे निवेदन है कि पूरी बात समझने के लिए उसे भी ज़रूर पढ़ें।)

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