काग़ज़ पर देश आज़ाद है; परन्तु यथार्थ के धरातल पर अब भी ग़ुलाम दिख रही है। ऐसा इसलिए कि वर्तमान में संवैधानिक संस्थाएँ-सहित समस्त आर्थिक उपक्रम सरकार की स्वेच्छाचारिता के शिकार हो रहे हैं, फलस्वरूप लोकमंगलकारी कार्यों के सुखद परिणाम दिख नहीं रहे हैं।
इसी विषय पर ‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज की ओर से आज (१७ अगस्त) एक आन्तर्जालिक राष्ट्रीय बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन किया गया, जिसमें देश के प्रबुद्धजन ने प्रभावकारी सहभागिता की थी।
प्रभा सिंह (लोकगीत-गायिका, प्रयागराज) का कहना है, ” लोकतन्त्र के मानक के अनुसार देश का संचालन नहीं हो रहा है। ऐसे लोग को सद्बुद्धि मिले। देश में सदैव अमन-चैन बना रहे। जिन शहीदों के त्याग और बलिदान के चलते देश को आज़ादी मिली है, उसका सम्मान करने के लिए समस्त देशवासियों को समान दृष्टि से देखते हुए समरसता की गंगा बहाने की आवश्यकता है। हम अपने उन बलिदानियों को नमन करते हैं।”
सुरेश सिंह यादव (अवकाश-प्राप्त न्यायाधीश और साहित्यकार, आगरा) ने कहा, ” निरन्तर जागरूकता ही आज़ादी की प्राण- वायु है। जब तक हर स्तर पर जागरूकता और जिम्मेदारी का भाव पैदा नहीं होगा, हालात सुधरेंगें नहीं।”
डॉ॰ हरिश्चन्द्र दुबे (श्री विश्वनाथ पी० जी० कॉलेज के बी०एड्०-विभाग, सुलतानपुर में कार्यरत) ने कहा, “हमें देश को एक निर्भीक और आत्मनिर्भर लोकतन्त्र के रूप में प्रतिष्ठित करने तथा इसकी समृद्धि- सम्पन्नता को पुनरुज्जीवित करने के लिए, सबसे पहले सभ्य-समाज की नींद हराम करने-करानेवाले राजनीतिक-खटमलों से छुटकारा पाना होगा। इसके लिए हमें अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण करते हुए, दलवाद, जातिवाद तथा अन्य प्रकार के भेदभाव से मुक्त होकर ऐसे व्यक्ति को ‘राजनेता’ के रूप में स्वीकार करना होगा, जो सर्वविध सुयोग्य, शिक्षित-संस्कारित होने के साथ-साथ ‘मानवता’, ‘अनेकता में एकता’ तथा ‘विश्वबन्धुत्व’ के मर्म-धर्म को बाख़ूबी समझनेवाला हो।”
हिना शाह (निजी उद्योग में प्रबन्धक, अहमदाबाद) “आज देश की आजादी के ७४ साल होने के बाद भी हम पश्चिम संस्कृति और सभ्यता के गुलाम बने हुए हैं। देश के राजनैतिक दल अगर एक हो जायें तो भारत को सोने की चिड़िया बनने और देश में रामराज्य आने से कोई रोक नहीं सकता। देश को समृद्ध करने के लिए हमारे युवावर्ग में जो क़ाबिलीयत है, उसका सही दिशा में उपयोग करना होगा। धर्म के नाम पर की जानेवाली राजनीति पूरी तरह से बन्द करनी होगी, तभी सही माने में लोकतन्त्र बचा सकेंगे।”
मधुबाला पाण्डेय (हिन्दी- अध्यापक– अनन्त प्रसाद सिंह इण्टर कालेज, भदोही) ने बताया, “केवल एक अच्छी शिक्षा नागरिकजीवन-स्तर को सुधार सकती है । भारत में कामकाज़ी महिलाओं का प्रतिशत सबसे कम है। हमें अधिक-से-अधिक महिलाओं को एक समतावादी समाज और आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए कार्यबल में लाने की आवश्यकता है। हमें बदलते समय के साथ अपने संस्थागत ढाँचे पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है। इसमें नियुक्तियों का मानकीकरण, प्रशासन में स्वतन्त्रता और कामकाज तथा हमारी संस्था पर शून्य राजनीतिक हस्तक्षेप शामिल हैं। जघन्य कृत्यों के ख़िलाफ़ सख़्त काररवाई कानून की ज़रूरत है, जो कि नहीं की जाती। अपराधियों में भय भरने के लिए उन्हें सार्वजनिक रूप से दण्डित करना होगा। हमें समझना होगा कि राजनेता और भ्रष्ट लोग दूसरे ग्रह से नहीं आते हैं, बल्कि हमारे समाज के ही हिस्से हैं। हर साल हम सब मिलकर एक ऐसा संकल्प करें, जो समाज को एक बेहतर जगह बनाये। मुझे यक़ीन है, अगले दस वर्षों में हमारा एक अद्भुत समाज होगा।”
परिसंवाद-आयोजक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने कहा, “जिस देश में ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ पर पहरा बिठायी जाये, उस देश में निरंकुशवादी शासन है। जो प्रधानमन्त्री हम नागरिकों से ‘पी०एम० केअर्स फण्ड’ में ली गयी राहतराशि की जानकारी देने से मना कर रहा हो, वह देश के लिए कितना घातक सिद्ध हो सकता है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। हम कहनेभर के लिए आज़ाद हैं, जबकि हमारे उठने-बैठने-बात करने आदिक की आज़ादी पर वर्तमान सरकार की क्रूर दृष्टि है। हमारे देश की जनता महँगी स्वास्थ्य, शिक्षा के दुश्चक्र में फँस चुकी है। सरकारी नौकरियाँ समाप्त की जा रही हैं; सरकारी प्रतिष्ठानों का निजीकरण किया जा रहा है; जनता की आय के स्रोतों को छिन लिया जा रहा है; परन्तु ‘केन्द्र-सरकार’ कहलाने के नाम पर व्यक्ति-विशेष के नाम पर सरकार का नामकरण यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि उस व्यक्ति की भूख कितनी घिनौनी है। हमारा किसान, जवान, शिक्षित युवावर्ग बुरी तरह से ‘हिन्दूवाद’ के जाल में फँस चुका है। यही कारण है कि उनके भविष्य की क्या-क्या योजनाएँ थीं, जो कुत्सित राजनीति के षड्यन्त्र में फँस चुकी है। इस तथाकथित सरकार ने जनसामान्य की चिन्तनप्रक्रिया को प्रतिकूल दिशा में मोड़ दिया है। ऐसे में, समस्त मतभेदों को भुलाकर समवेत स्वर में क्रान्ति के आह्वान का समय आ चुका है।”
प्रमोद कुमार ‘प्रमोदानन्द’ (शिक्षण और सामाजिक कर्म में रत, लखनऊ) का विचार है, “आज हमारा राष्ट्र और हमारी सरकार व्यक्ति-केन्द्रित हो चुकी हैं। ऐसे में, हमें लोक-लुभावन-संकीर्ण और स्वार्थपूर्ण तात्कालिक लाभकारी वायदों का मोह छोड़; वास्तविक राष्ट्रीय-मानवीय मूल्यों को समझते हुए, अपना कर्म-पथ का चयन स्वयं करना पड़ेगा और सम्पूर्ण क्षमता के साथ व्यक्त्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने के लिए प्राणपण से लगना होगा।”
नीतू सिंह (कलाविद् और पू्र्व-अतिथि प्रवक्ता– इलाहाबाद गर्ल्स डिग्री कॉलेज, प्रयागराज का मत है, “भारत की वास्तविक स्वतन्त्रता का मूल्य वही समझ सकते हैं, जिन्होंने परतन्त्रता का दंश सहा हो। हमारे स्वतन्त्रता संग्रामसेनानियों ने आत्मबलिदान कर, हमारे समक्ष जो प्रतिमान उपस्थित किया है, वह वर्तमान परिदृश्य में अभावग्रस्त दिख रहा है; और वह इस रूप में किसी भी देश की सेना का मनोबल हमारे अत्याधुनिक उपकरण ही नहीं बढ़ाते, बल्कि देश के प्रत्येक नागरिक के प्रोत्साहक स्वर जब उनमें शौर्य और साहस का संचार करते हैं तब हमारे योद्धाओं के अंग-अंग में राष्ट्रीयता स्फुरण होने लगता है। आज लघु उद्योगों को बढ़ावा देकर हमारे करोड़ों शिक्षित बेरोज़गारों को रोज़गार देने के लिए कटिबद्ध होना होगा।”
वीरेंद्र प्रसाद (वरिष्ठ सहायक अध्यापक, वाराणसी) का मानना है, “देश के हर नागरिक को उसकी अर्हता, योग्यता, क्षमता तथा कुशलता के अनुरूप काम मिले। भ्रष्टाचार को हर स्तर पर सख़्ती के साथ समाप्त किया जाये। सभी बच्चों को कम-से- कम बारहवीं तक की अनिवार्यत: निश्शुल्क रोज़गारपरक शिक्षा मिले। योग्य लोग को पारदर्शी तरीक़े से नौकरी मिले। शिक्षा, रक्षा, चिकित्सा तथा रोज़गार को प्राथमिकता की श्रेणी में रखकर काम किया जाये। सरकारी फ़िज़ूलख़र्ची को रोका जाये तथा जनसेवकों को न्यूनतम वेतन-भत्ते मिले। सरकारी कार्यों की ऑडिट में दक्ष ऑडिटरों के साथ बुद्धिजीवियों की सेवाएँ ली जायें। हर स्तर पर न्यूनतम परास्नातक शिक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण साफ-सुथरी छविवाले व्यक्ति को ही चुनाव लड़ने की वैधानिक व्यवस्था की जाये।”
डॉ० प्रतिभा सिंह (अधिवक्ता– उच्च न्यायालय, इलाहाबाद) की अवधारणा है, ” विकास के नाम पर की जानेवाली ‘विनाशलीला’ बन्द की जाये और देश के प्रत्येक नागरिक का अधिकार और कर्त्तव्य सिर्फ़ संविधान की व्याख्या में संरक्षित न रहे, बल्कि उसे महसूस करने का अवसर प्राप्त हो। इसके लिए अर्थतन्त्र के इर्द-गिर्द अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले राजनेताओं पूँजीपतियों तथा अधिकारी-वर्ग को देश के इन सुपूतों के बलिदान से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए, जिससे कि हमारी स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ और आशय सार्वजनिक हो जाये”
दीपक कुमार यादव (अध्यापक, जौनपुर) ने कहा, “समाज का प्रत्येक वर्ग आयकर और अन्य सभी करों का ईमानदारी से भुगतान अवश्य करे। प्रत्येक व्यक्ति अपने पद पर रहते हुए अपना कार्य ईमानदारी से करे। समर्थ व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार ज़रूरतमन्दों की मदद करें। भ्रष्टाचार में संलिप्त राजनेता, अधिकारी तथा कर्मचारी-वर्ग को को तत्काल पदच्युत कर देना चाहिए। प्रत्येक नौकरी में चयन का आधार बहुविकल्पीय और लिखित परीक्षा को बनाया जाना चाहिए। कमज़ोर आयवर्ग के छात्र-छात्राओं की बेहतर शिक्षा की जिम्मेदारी सरकार को उठानी चाहिए। राजभाषा हिन्दी का प्रयोग सम्पूर्ण देश में अनिवार्य किया जाना चाहिए।”
विरंजय सिंह यादव (अध्यापक, गोरखपुर) ने कहा, “सत्ताधारियों का कोई राष्ट्रीय चरित्र नहीं है। आज राष्ट्र का हर नागरिक किसी- न-किसी राजनैतिक दल का सदस्य अथवा समर्थक है। हमारे देश का युवावर्ग राजनेताओं के इर्द-गिर्द रहकर और उनके साथ फ़ोटो खिंचवाकर उनकी ग़ुलामी में लग जाता है। अत: आवश्यकता है कि युवा स्वतन्त्र विचारक बने और अपनी स्वस्थ प्रगति के प्रति जागरूक बने।”
विजय तिवारी (प्रतियोगी विद्यार्थी, गोंडा) का विचार है, “शिक्षाव्यवस्था आरम्भ से अन्त तक मातृभाषा/राजभाषा(अन्य विकसित देशों के तर्ज पर) आधारित तकनीकी और रोज़गारपरक होनी चाहिए।स्वदेशी को यथासम्भव बढ़ावा देना होगा और मृत पड़े स्वदेशी उद्योगों को पुनः जीवित करना होगा; क्योंकि केवल स्वदेशी नीतियों के पारदर्शी प्रतिपादन से भारत की आर्थिक सम्पन्नता लौट सकती है। इसके साथ ही भारतीय उद्योगों का निजीकरण बन्द करना होगा। सम्पूर्ण देश का एक ही पाठ्यक्रम होना चाहिए, जिससे समाज का ग़रीब विद्यार्थी भी वही पाठ्यक्रम पढ़े, जो समाज के उच्च वर्ग का विद्यार्थी पढ़ता हो। हमारे देश की जनता के लिए ‘राइट टु रिकॉल’ नामक क़ानून की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे जनता को जैसे किसी नेता का कार्य पसन्द न आये, वह उसे वापस बुला ले। नेताओं के मन में यह भय भरना होगा कि अगर काम नही करोगे तो कुर्सी भी नहीं रहेगी, जनता पाँच वर्षों के लिए प्रतीक्षा नहीं करेगी।देश में पूर्ण रूप से हर प्रकार के मादक पदार्थ को प्रतिबन्धित करना होगा। एक मोची भी अपने वस्तु का मूल्य स्वयं निर्धारित करता है; किन्तु हमारे देश का किसान, जो भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है, उसे अपने खाद्यान्न का मूल्य निर्धारित का अधिकार नहीं होता। उसे भी यह अधिकार देना होगा।जनसंख्यानियन्त्रण और नारी शक्तीकरण के विषय में ठोस कानून बनाने की सख़्त ज़रूरत है।”
सत्यप्रकाश तिवारी (प्रतियोगी विद्यार्थी, दिल्ली) की मान्यता है, “गांधी जी और सरदार पटेल जी के सिद्धान्तों को अपनाने की ज़रूरत है, जिससे समाज और राष्ट्र का चारित्रिक विकास हो तथा राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के सिद्धान्तों को बल मिले। पूँजीवाद की ग़ुलामी में पगे नेताओं को देश की जनता की आर्थिक सम्भावना और स्वतन्त्रता पर सोचना होगा। लाल क़िले के प्राचीर से केवल साल-दर-साल भाषण की संख्या न बढ़े, बल्कि जिसलिए आज़ादी मिली थी, वह मूल्य भी बढ़े। अति पाश्चात्यीकरण के बजाय हमें अपनी परम्परा और संस्कृति को तकनीकि के सामंजस्य से आधुनिक करना होगा। महिलाओं की स्वतन्त्रता और समानता के लिए हमें आदिवासी-समुदाय से सीखना होगा। जिस आज़ादी में सभी समाज का सहयोग है, उस समाज को दलगत राजनीति की कुचेष्टा से बाँटना नहीं है, एक करना है। अपने समाज और राजनीति को अपराधियों के शासन से मुक्त करना होगा।”
अन्त में, समस्त सहभागीगण के प्रति परिसंवाद-आयोजक ने कृतज्ञता ज्ञापित की।