कहाँ है, देश का ‘आपदा-प्रबन्धन विभाग’?

ज्वलन्त विषय ०———

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

इस तथ्य से कोई अनभिज्ञ नहीं कि सम्पूर्ण विश्व में आपदा (‘प्राकृतिक आपदा’ का प्रयोग अशुद्ध है।) अपने विविध रूपों में आती है और स्थावर-जंगम को प्रभावित कर जाती है। विश्व के लगभग सभी देश अपने विस्फोटक हथियारों का परीक्षण धरती के भीतर करते हैं, जिनके कारण भूगर्भ इतना अशक्त और निश्शक्त हो जाता है कि पृथ्वी भूकम्प, भूक्षरण, ज्वालामुखी आदिक महाविनाशक प्रकोप के रूप में समूची दुनिया को हिलाकर रख देती है और सभी ‘किंकर्त्तव्यविमूढ़ बने रहते हैं। आकाश फट रहा है; बिजली गिर रही है; चक्रवात् , आवृष्टि, अनावृष्टि आदिक परा-प्राकृतिक प्रकोप से सम्पूर्ण सृष्टि कम्पायमान हो रही है। आश्चर्य! सारा विश्व निरुपाय-निस्सहाय है।

भारत देश उस विश्व से पृथक् नहीं है अथवा उसके पास ऐसी कोई विलक्षण शक्ति नहीं है, जो उसे आपदा-प्रकोप से निरापद रख सके। ऐसे में, भारत की केन्द्र और राज्य-सरकारों पर आपदा-संकट से अपने देश के जड़-चेतन की सुरक्षा करने का दायित्व है, जिससे वे बच नहीं सकतीं। केन्द्र और राज्य की सरकार चलानेवाले यह अच्छी तरह से जानते-समझते हैं कि प्रतिवर्ष देश के अधिकतर राज्यों में बाढ़ और सूखा का प्रकोप होता है और वहाँ का जन-जीवन आर्त स्वर में “त्राहि माम्” पुकार उठता है। उसके बाद भी यदि सरकारें सक्रिय न रहें तो यह उनकी कार्यक्षमता और जागरूकता के समक्ष एक प्रकार का यक्ष प्रश्न है, जिसके सम्मुख सरकारें नतमस्तक हैं।

व्यावसायिकता के नाम पर पूर्व और वर्तमान की सरकारों का देश की नदियों के प्रति बलप्रयोग करने की नितान्त निन्दनीय नीतियाँ आज देश के जनजीवन और वनस्पतियों को रुग्ण बना रही हैं।

देश में अस्सी के दशक में ‘आपदा-प्रबन्धन विभाग’ बनाया गया था; परन्तु खेद है कि तब से अब तक उसकी सारी गतिविधियाँ सन्दिग्ध रही हैं। क्या यह ‘विनाशक सत्य’ वर्तमान केन्द्र-शासन के संचालकगण के संज्ञान में नहीं है? यदि है तो उस ओर से उदासीनता क्यों प्रकट हो रही है?
समस्त आपदा-रूपों की विध्वंसक गतिविधियों के साथ जूझ-जूझ कर देश की जनता कालकवलित हो रही है; जीव-जन्तु-लोक पर विनाश का काला साया मँडरा रहा है, जबकि सत्ताधारियों का प्रबन्धन-तन्त्र हर बार ‘बौना’ सिद्ध हो रहा है। देश के विज्ञानी, प्रौद्योगिकीविद् आदिक अपनी प्रयोगशालाओं में बैठकर प्रकृति और परा-प्रकृति को खुली चुनौती देते हैं और जब वही परा-प्रकृति ताल ठोंकती है तब उनकी सारी प्रयोगधर्मिता ‘धरी-की-धरी’ रह जाती है। इसके लिए देश का एक-एक व्यक्ति निर्विवादत: अपराधी है। पेड़ काटना,वायु, जल को प्रदूषित करना, ‘डायनामाइट’ लगाकर पहाड़ों और पर्वतों को नष्ट करना, विलासिता के लिए रेफ़्रिजेरेटर, स्प्रे इत्यादिक का उपयोग करना, वाहनों के ‘हॉर्न’ का अनावश्यक प्रयोग करना, प्लास्टिक की थैलियाँ तथा अन्य अवशिष्ट इधर-उधर फेंकना, अपने घरों के सामने की नालियाँ अवरुद्ध कर देना, वाहनों, कल-कारख़ानों, चिमनियों आदिक से धुँआ का निकलना— ये सभी कारक जीव-अजीव के अस्तित्व के लिए महाघातक बन चुके हैं। ऐसा भी नहीं कि मान्यता-प्राप्त चौरासी लाख योनियों में सर्वाधिक विवेकवान् मनुष्य-जाति इस सत्य को नहीं समझता; वह भली-भाँति समझता है, परन्तु स्वार्थपरता की आत्मघाती पट्टी उसकी आँखों को बाँधे रखती है।

एक और बिन्दु है, देश में ‘पर्यावरण का स्वास्थ्य’ सुधारने के लिए लाखों की संख्या में ‘एन० जी० ओ०’ के नाम पर संस्थाएँ हैं, जो प्रतिवर्ष अरबों रुपये डकार जाती हैं और हमारा पर्यावरण ‘ठगा-का-ठगा’ रह जाता है।

अब नये सिरे से किसी भी आपदा-प्रभाव से देश-देशवासियों तथा स्थावर-जंगम को संरक्षित करने के लिए रचनात्मक स्तर पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा। यह तभी सम्भव है, जब राजनीति के क्षेत्र में ‘सेंधमारी’ बन्द की जायेगी और अतीत की ‘राजा-प्रजा’ की शुभ्र अवधारणा प्रतिष्ठित की जायेगी।

आज देश के लाखों नागरिक बाढ़ के कारण जीवन-मरण के बीच झूल रहे हैं; परन्तु सत्ताधारी उन प्रभावित नागरिकों के बीच जाकर उन्हें ‘शाब्दिक सहारा’ देने से भी कतरा रहे हैं; केवल ‘दलित समाचार-चैनलों’ के माध्यम से ‘अपनी दलित बतकही’ सुनाकर अपने ‘दलित कर्त्तव्य की इतिश्री’ कर ले रहे हैं।

एक बार ‘ट्वीटर’ पर यह सूचना आयी थी कि प्रधान मन्त्री ने बाढ़-समस्या से निबटने के लिए एक ‘आपात् बैठक’ बुलायी है। उसके बाद से यह स्पष्ट न हो सका—देश के उन लाखों नागरिकों की जीवन-रक्षा करने के लिए सरकार ने कौन-सी नीति बनायी है, जिनके घर-द्वार, सम्पदा आदिक तहस-नहस हो गये हैं? जिनके परिवार के सदस्य कालकवलित हो गये हैं? जिनके पशु बह गये हैं? आज जो दाने-दाने के लिए परमुखापेक्षी हो चुके हैं? यही नहीं, बड़ी संख्या में अभयारण्यों में रहनेवाले जो जीव जलधारा में बह गये हैं!
इतना ही नहीं, गुजरात, ओडीशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश आदिक कई राज्यों के सत्ताधारी लोग बाढ़ से त्रस्त अपने नागरिकों के लिए क्या कर रहे हैं? सरकारों की ओर से भेजी गयी सहायता सभी पीड़ितों तक पर्याप्त मात्रा में पहुँच रही है अथवा नहीं, इसका संज्ञान सरकारें ले रही हैं?
यह एक गम्भीर विषय है, जिसके सन्दर्भ में ‘दलित मानसिकता’ त्याग कर, ‘मानवीय संवेदना’ का परिचय देना होगा।

केन्द्र और राज्य-सरकारों की नीति पर तरस आता है। यह सत्य सभी को मालूम है कि दशकों से लगातार प्रतिवर्ष बाढ़ आती है; सूखा की स्थिति दिखती है; परन्तु सरकारें हाथ-पर-हाथ धरे रहती हैं। यदि वे सक्रिय रहतीं तो आज आवृष्टि और अनावृष्टि के प्रकोप से बचाने के लिए कोई-न-कोई ठोस और कारगर उपाय दिखता। आपदा से ग्रस्त लोग दयनीय जीवन जीने के लिए बाध्य नहीं होते। इतना सब घटने के बाद भी सरकारों की आँखें बन्द दिख रही हैं। ऐसे में, केन्द्र और राज्य- सरकारों के कुशासन की पोल खुल जाती है।

प्रश्न है, केन्द्र और राज्य-सरकारें ‘आपदा प्रबन्धन मन्त्रालय’ का गठन करने से पीछे क्यों हट रही है?

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २९ जुलाई, २०२० ईसवी)