जिधर देखो उधर हमारी राष्ट्रीयता का अनादर!

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

देश के राष्ट्रध्वज का वस्त्र खादी का रहा है। इस सरकार ने उसे भी बदल दिया है। खद्दर हमारी राष्ट्रीय भावना का प्रतीक है। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार और उनका दहन कर स्वदेशी वस्त्रों का अंगीकरण के मूल मे ‘खादी’ ही रही है। महात्मा गांधी की प्रेरणा से पराधीन भारत की जनता ने घर-घर चर्खे लगवाकर जिस उत्साह के साथ रुई से सूत कातकर ‘खादी’ के वस्त्र का निर्माण करते हुए, देशभर मे ‘स्वदेशी अपनाओ’ को प्रचारित-प्रसारित किया था, उसे हमारी सरकार पूरी तरह से भूल चुकी है। यही कारण है कि अब वह ऐसे-ऐसे कदाचार करने के रास्ते पर बढ़ चली है, जो नितान्त आपत्तिजनक है और राष्ट्रविरोधी भी। खेद है, देश के सभी विपक्षी दल अपनी-अपनी अतिरिक्त महत्त्वाकांक्षा को दोनो हाथों से इस तरह से पकड़े हुए हैं, मानो वे उसे अपने शरीर के मरने के बाद अपनी अरथी के बग़ल मे एक पोटली मे बाँध कर ले जाने के घोर इच्छुक हों।

निस्सन्देह, इस तरह का कोई भी बदलाव असंवैधानिक कृत्य कहलाता है। कोई भी सरकार अपनी अतिवादिता का परिचय देते हुए, किसी भी राष्ट्रीय चिह्न आदिक मे यदि कोई भी परिवर्त्तन करती है तो उसे सर्वप्रथम संसद् मे एक प्रस्ताव लाना चाहिए और उस पर कारणसहित प्रकाश डालना चाहिए। यदि उस पर दो-तिहाई समर्थन प्राप्त हो जाता है तो उसे क्रियान्वित किया जाना चाहिए। हमारा राष्ट्रीय बोध, सम्प्रतीक आदिक किसी भी सरकार की “घर की खेती” नहीं है कि जैसा चाहो वैसा करो। इस विषय पर तो सभी विपक्षी दलों के सांसदों को एक स्वर मे विरोध करते हुए, राष्ट्रपति से मिलना चाहिए था और यदि राष्ट्रपति ने भी उस शोचनीय पक्ष पर विचार करने मे असमर्थ दिखता तो न्यायालय जाना चाहिए था।

सरकारें तो आती-जाती रहती हैं और उनका कभी मूल चरित्र स्थायी नहीं रहा है; परन्तु राष्ट्रीय गौरव का विषय अक्षुण्ण रहता है। उस पर यदि कोई भी सरकार पदप्रहार करती दिखे तो विपक्षी दलों का परम कर्त्तव्य बनता है कि उस सरकार के पैरों को तोड़कर-चीरकर ‘दिव्यांग’ बना दे। इसी तिरंगे की रक्षा करने के लिए न जाने कितने सहस्र हमारी वीर-वीरांगनाओं ने अपने प्राण की आहुति कर दी थी।

राष्ट्रध्वज आड़ा-तिरछा नहीं लगाया जाता। उसे सम्मानपूर्वक नब्वे (‘नब्बे’ अशुद्ध है।) अंश के कोण पर गाड़े गये स्तम्भ पर लगाया जाना चाहिए। सच तो यह है कि इस मधबढ़ सरकार ने राष्ट्रध्वज को पान की गुमटी बना डाला है। तामसिक दुकानो, अपवित्र स्थलों आदिक मे राष्ट्रध्वज को जिस तरह से लगाया गया है, उसे देखकर बेशक, यही कहा जायेगा कि इस सरकार ने अपनी दूषित और कलुषित मनोवृत्ति का परिचय दे ही दिया है। क्या यही राष्ट्रीयता है? एक व्यक्ति अथवा दो व्यक्ति किसी सरकार के पर्याय कैसे हो सकते हैं? अफ़्सोस! हमारे देश मे वर्ष २०१४ से लेकर यही दिखता आता रहा है; होता आ रहा है।

अपनी घातक और आतंकी असंवैधानिक कृत्यों से यह सरकार देश की व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को डराती आ रही है। स्वघोषित चतुर्थ स्तम्भ मीडियातन्त्र डरा-सहमा हुआ है और सरकार का मिथ्या गुणगान कर रहा है। हम, जिन समाचारपत्रों को सर्वाधिक विक्रयवाले समाचारपत्रों की सूची मे देखते आ रहे हैं, उनके स्वामी अपने काले कारनामो को छिपाने के लिए सरकार की अन्धभक्ति मे लगे हुए हैं। समाचार-चैनल तो क्रीतदास (ख़रीदे हुए ग़ुलाम) दिख रहे हैं। जिस देश का परिदृश्य इतना बीभत्स दिखे, वहाँ की समृद्धि और सम्पन्नता यदि मुख्य राष्ट्रीय धारा से अलक्षित हो जाये तो इसमे विस्मय की कौन-सी बात?

राष्ट्रध्वज का ‘शासनस्तर’ पर खुले रूप से विक्रय आज़ादी के अनन्तर पहली बार किया जा रहा है। इस तरह से सरकार की बनियागिरी इस स्तर पर आ जायेगी, सोचा भी नहीं जा सकता है। जिस दल के एक नेता की भी स्वतन्त्रता-प्राप्ति मे किंचित् योगदान न हो, उससे इस प्रकार के कृत्य होते हैं तो इसमे कोई आश्चर्य की बात नहीं; लेकिन विश्वस्तर पर राष्ट्र कलंकित अवश्य हुआ है।
जिस सरकार के समर्थक और चाटुकार यह कहें, “देश को आज़ादी तो वर्ष २०१४ के बाद मिली है” और इस पर कथित सरकार प्रतिक्रियाविहीन दिखे तो यह सहज ही समझा जा सकता है कि उस सरकार की भी उसमे मिलीभगत है।

देश के नागरिक भी इस राष्ट्रघाती कृत्य के लिए उत्तरदायी हैं, जो वर्ष २०१४ के आरम्भ से गांधी के ‘तीन बन्दर’ का चरित्र जीते आ रहे हैं। अभी इन कथित बन्दरों को यही सरकार बहुत ही बुरा दिन दिखानेवाली है।

हमारा लोकतन्त्र आज़ाद वातावरण मे साँस लेने के लिए पिछले लगभग नौ वर्षों से छटपटा रहा है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ११ अगस्त, २०२२ ईसवी।)