शोध-क्षेत्र में हो रहे ‘क्षरण’ के लिए कौन उत्तरदायी ?

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय


शोधकर्म के निर्देशक और परीक्षक अधिकतर ऐसे लोग ‘बनते’/’बनाये’ जाते हैं, जिनमें शोधविद्यार्थियों का मार्गदर्शन करने और शोधकार्यों’ के सम्यक् परीक्षण करने की योग्यता नहीं रहती; क्योंकि ऐसे लोग बिना अध्यवसाय और चिन्तन-अनुचिन्तन के ‘जुगाड़’ कर और ‘उत्कोच’ (रिश्वत) देकर अध्यापक की नौकरी पा जाते हैं या फिर आरक्षण-कोटे से सीधे रख लिये जाते हैं। ऐसे में, शोधधर्मिता की गुणवत्ता पर प्रश्नचिह्न का लगना स्वाभाविक है।


अधिकतर शोध-निर्देशक छात्राओं को ही शोध कराने में रुचि लेते हैं। यहाँ तक कि कुछ छात्राएँ अपने ‘सर’ की प्रत्येक स्तर की दैहिक इच्छापूर्ति करने के लिए तत्पर रहती हैं; क्योंकि ‘हस्ताक्षर’ करने के अलावा उन्हें कुछ नहीं करना पड़ता। ‘सर जी’ सारी ‘थीसिस’ तैयार कर देते हैं और ‘गाइड’ करने के नाम पर ‘सर जी’ अपनी उद्दाम वेगवती लेखनी से अपनी शिष्या जी की पूर्ण सहमति से उसके अंग-प्रत्यंग पर हस्ताक्षर करते रहते हैं।


कुछ तो इतने ‘कामी’ होते हैं, जो सुस्पष्ट शब्दों में कह देते हैं– थीसिस ‘कम्पलीट’ कराने पर हमें क्या मिलेगा? उत्तर भी हाज़िर रहता है– सर जी! जो आप माँगोगे मिलेगा। ऐसे में, अन्धा क्या चाहे– दो नयन। 
इसका दूसरा पक्ष यह है कि उन्हीं में से कुछ छात्राएँ ऐसी भी होती हैं, जो समझौता न कर, अपने अध्यवसाय का परिचय देते हुए, शोधकर्म को अन्तिम रूप देती हैं; किन्तु लम्पट क़िस्म के शोधनिर्देशकों के साथ ‘कम्प्रोमाइज’ न कर पाने के कारण पिछड़ जाती हैं और पहले से ही ‘कम्प्रोमाइज करने का मन बनायी हुई छात्रा आगे निकल आती है।
अब इस पर ‘लगाम’ लगनी चाहिए।