लोक संसद में आज का प्रश्न- ‘हिन्दू-समाज’ जयश्री राम’ के स्थान पर ‘जयश्री भरत’ क्यों नहीं कहता?

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

संचालक- डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय


लोक संसद में आज का प्रश्न- ‘हिन्दू-समाज’ जयश्री राम’ के स्थान पर ‘जयश्री भरत’ क्यों नहीं कहता?


देवेन्द्र कुमार तिवारी- सत्य हैं, इससे देश की एकता और अखंडता को बल मिलेगा।

प्रदीप अरोरा–  इन दोनों आराध्यों का पूर्ण सम्मान है ! विष्णु के स्वरूप श्रीराम के और धर्मराज के स्वरूप श्रीभरत का ! मेरी पीडा महात्मा , धर्मात्मा और सत्यमार्ग को चुनने वाले , धर्म के लिए अपनो का विरोध करने वाले , पिता का सिर ऊँचा करने वाले धर्मपरायण विभिषण को लेकर है जिसे समाज समझ नहीं पाया और घर का भेदी कहता है , इससे विचलित होता हूँ मैं ! हरिभक्त विभिषण जैसे विरले ही पैदा होते है इनके श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन !

डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय- अरोड़ा जी! आप विषयान्तर हो चुके हैं।

प्रदीप अरोरा- श्रीराम अपने चार स्वरूपों में अवतरित हुए – राम लक्ष्मण भरत और शत्रुध्न और इसी तरह श्रीकृष्ण के चार स्वरूप रहे हैं – कृष्ण बलराम प्रद्युम्न और अनिरूद्ध ! इन चारों को अलग करके नहीं देख सकते यें वस्तुतः एक हैं , विस्तृत कार्यो-कर्मो को शीघ्र समेटने में सहायक हैं ईश्वर ही इन चारों स्वरूपों में अवतरित हो भूमि का भार हरण करने के साथ संतपुरूषों को सुख प्रदान करते हैं और समाज में आ चुकी विकृतियों को नष्ट कर पुनः धर्म को स्थापित करते हैं और अधर्म का नाश करते हैं !

पुरुषोत्तम फौजदार- भरत के चरित्र को लिखा नहीं गया है । राम चरितमानस में बाबा तुलसी दास जी ने जो लिखा वही हमने पढ़ा ।
इस विषय पर शोध हो और भरत जी का चरित्र लिखा जाना चाहिए ।

डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय- फ़ौजदार जी! विषय के मूल में प्रवेश करें फिर मनन करें; नवनीत की प्राप्ति सहज नहीं है।

प्रदीप अरोरा- जी , जिस पुण्य की प्राप्ति सिद्धावस्था को पहुँचे महर्षि वाल्मीकी और तुलसीदास जी के रामायण व रामचरितमानस को पढकर होगी वैसी प्राप्ति कोई शोध करके लिखे को पढकर नहीं हो सकती ! मूल ही मूल तक पहुँचाता है !

कुसुम शुक्ला- बिना त्याग व कर्म के पाने की इच्छा के कारण

डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय- कुछ अन्य पहलुओं को उजागर करें।

सत्येन्द्र कुमार उपाध्याय- सही कहा गुरुदेव। आखिर इतना गुणात्मक विकास विकास कर पाना राम के बस का भी नहीं है । मेरा आशय आज के भरत से है

डॉ. अरविन्द उपाध्याय- वर्तमान राजनीतिक रोटी जो इसी तवे पर पक रही है।

डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय- इसका पल्लवन कीजिए।

राघवेन्द्र कुमार राघव- गुरुवर ने प्रश्न किया है कि कोई जय भरत क्यों नहीं कहता ? श्री राम का आलोचना ग्रन्थ लिखने के लिए नहीं कहा है । यदि कोई आहत हो तो उससे क्षमा की याचना के साथ केवल इतना कहना चाहता हूँ कि राम की क्षमताओं पर प्रश्न करने से पूर्व यदि एक बार राम को जानने का प्रयत्न किया होता तो वातावरण में दुर्गन्ध के स्थान पर सुगन्ध फैल रही होती । भरत हमारे अन्तस में बसने वाली आस्था हैं लेकिन श्री राम उस आस्था केन्द्र । रही बात कर्म की तो कर्म भरत ने किया राम ने नहीं, यह कौन सा निष्कर्ष है । कर्म राम ने किया और श्री भरत ने कर्मपथ का अनुगमन किया । महान स्रष्टा होता है… यही शाश्वत नियम है ।

डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय- राघव जी! आपने सूत्रवाक्य की सारगर्भित व्याख्या कर दी है। यहाँ अधिकतर लोग ‘विचार’ को गठरी में बाँधकर लाते हैं परन्तु विचार तो उन्मुक्त हवा है। आपको जब कभी मेरा विचार ग़लत लगे, निस्संकोच तर्क और तथ्य से काटते हुए, नयी स्थापना करने का प्रयास कीजिएगा।

कुमार कान्त- त्याग – तपश्चर्या और कष्टसाध्य जीवन की उपलब्धियाँ सम्भवतः भारतीय दर्शन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है ।

डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय- यह तो स्वयंसिद्ध है।

जगन्नाथ शुक्ल- ‘जय भरत ‘ भरत की दृष्टि में आलोचना होगी क्योंकि भरत का जीवन चरित्र अपने आराध्य श्री राम के चरणों के इर्दगिर्द ही रचा बसा है, यदि कोई आपके आराध्य के स्थान पर आपकी जय जयकार करता है तो यह सच्चरित्र होने के नाते आपको पीड़ा ही देगा और भरत के चरित्र से तो पूरा समाज आलोकित है। श्री राम ने किसी को भी यदि अपने हृदय में उच्च स्थान दिया है तो उसे भरत के समान ही कहा है अधिक कभी नहीं। वैसे भी आर्यावर्त की परम्परा में यदि आप पूजनीय हैं और स्थान विशेष पर कोई आपका भी पूजनीय उपस्थित हैं तो वहाँ पर उनकी गरिमा स्वतः बढ़ जाती है, निस्संदेह राम एक नाम नहीं बल्कि जीवनधारा है और भरत इस धारा का वेग हैं तो फिर धारा और वेग को अलग कैसे किया जा सकता है। अतः श्री भरत के हृदय में श्रीराम हैं और भरत जी स्वयं को श्रीराम के शरणागत मानते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि श्री राम की जय में ही श्री भरत की जय समाहित है।

डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय- यह तो एक पृथक् प्रकार की व्याख्या है। हमारा हेतु इससे इतर है।

एकलव्य विश्वास- बिल्कुल सत्य कहा आपने आदरणीय अखंडं भारतम समरैत..यही हमारा मूल मंत्र है और होना भी चाहिए।मज़हबी होना भारत की अखंडता को खतरा है।मैं इसका विरोध करता हूँ।

वसंत शर्मा- क्या गारंटी है इसके बाद त्याग करने लगेगा।

डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय- अभी सन्तान पैदा ही नहीं हुई और आप उसके भविष्य के विषय में सोचने लगे?

अक्षरा पटनायक- गुरुदेव! जयश्री राम के नाम पर ही तो साम्प्रदायिकता का विष देश की धरती पर बोया जा रहा है। भरत के नाम को सांप्रदायिक रूप नहीं दिया जा सकता । भरत तो साधु थे; महान त्यागी थे । साम्रदायिक रूप देने वाले त्यागी नहीं, भोगी हैं ।

डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय- उत्तम ।

रोशन लाल गुप्त- क्योंकि परम्परागत परिवार में अग्रज का ही सम्मान ज्यादा होता है रामचन्द्र जी का त्याग अभिन्न था ।

डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय- आप यदि त्याग की दृष्टि से देखें तो राम से अधिक ‘लक्ष्मण’ का त्याग था। आपका क्या विचार है? जो त्याग से सुदूर है, वह कितना भी ‘जयश्री राम’ कर ले, ‘राम’ मिलनेवाले नहीं हैं क्योंकि राम के हृदय में ‘भरत’ के लिए किस प्रकार का और कितना स्थान था, संकीर्ण और क्षुद्र मन:स्थिति में इन्हें नहीं समझा जा सकता। अस्तु, पहले ‘भरत’ बनो; ‘राम’ तो स्वत: आ जायेंगे।

अभिषेक कुमार पाण्डेय- जय किसकी यह तय कर दिया है ।

डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय- आपका कथन अस्पष्ट है; स्पष्ट करें।

देवेश पाण्डेय- ‘जय श्री राम’ उन्मादवादियों का दिया हुआ नारा है | हमारी परंपरा में जय सियाराम का नारा है |

डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय- हमारा विषय यह नहीं है। विषय के निहितार्थ को समझिए।