हम भी उतने ही खटते हैं जितने आदमी लोग– सुमन

आज अन्तरराष्ट्रीय महिला-दिवस है और बौद्धिक वर्ग का मंच ‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज की ओर से उस वर्ग की स्थिति के प्रति अपनी मुखरता व्यक्त की गयी है, जो दीर्घकाल से असमानता का व्यवहार झेलता आ रहा है, और वह वर्ग है, ‘प्रतिदिन खटता आ रहा महिला-वर्ग’, जिसे समाज ‘मज़दूरिन’, ‘महिला श्रमिक’ तथा ‘महिला मज़दूर’ के नाम से जानता-पहचानता आ रहा है। लैंगिक आधार पर श्रम-विभाजन और पारिश्रमिक में अन्तर को देखता आ रहा है; परन्तु मौन रहकर।

‘सर्जनपीठ’ के तत्त्वावधान में आज (८ मार्च) ‘महिला-पुरुष श्रम-विभाजन और पारिश्रमिक में अन्तर का औचित्य?’ विषयक एक आन्तर्जालिक अन्तरराष्ट्रीय बौद्धिक परिसंवाद में देश-देशान्तर के प्रबुद्ध-वर्ग और एक महिला श्रमिक ने अपने प्रासंगिक विचार व्यक्त किये थे।

सुमन (कक्षा सात उत्तीर्ण महिला श्रमिक, सहतवार, बलिया) ने सिर झुकाते हुए धीमे स्वर में बताया, “साहेब! आप तो सब जानते हैं कि केतना बेईमानी सब करते हैं। काम हम उहे करते हैं जो आदमी लोग करते हैं। मजूरी देते समय कम देते हैं। कहो भी तो सुननहार केहू नहीं। हम भी उतने ही खटते हैं जितने आदमी लोग।”

डॉ० नीलम जैन (हिन्दी-अध्येत्री, संयुक्त राज्य अमेरिका) का मत है, ”वर्तमान में,जब महिलाएँ उद्योगों , कम्पनियों ,वित्तीय एजेंसियों तथा अनेक व्यवसायों में महत्त्वपूर्ण भूमिका-निर्वहण कर रही है; देश-विदेश में आर्थिक क्षेत्र में अपनी महत्ता स्थापित करती आ रही हैं तब यह भेद असंगत है। वैश्वीकरण प्रक्रिया और अर्थव्यवस्था के विस्तार से श्रम-बाज़ार में महिलाओं की एक बड़ी संख्या सम्मिलित हो चुकी है। आर्थिक वैश्वीकरण उत्पादन- व्यापार और वित्तीय-जैसे बहुत-से ऐसे व्यवसाय हैं, जिनमें मात्र महिलाओं ने अपनी एक अलग पहचान बनायी है, इसलिए श्रम के आधार पर भेदभाव किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। आत्मविश्वास, प्रखर प्रतिभा, निर्णय-क्षमता तथा कर्मठता से वह आत्मनिर्भर बन रही है। आज वह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में भी उच्च पदों पर प्रतिष्ठित है। प्रत्येक व्यावसायिक क्षेत्र में उसका पदार्पण हो चुका है, ऐसे में पारिश्रमिक का अन्तर एक प्रकार का पूर्वग्रह ही कहा जा सकता है। श्रम का लैंगिक विभाजन आधुनिक विशिष्ट उत्पादन की समकालीन अर्थव्यवस्था में निराधार है। जब महिलाएँ घर से बाहर पैसा कमाने के लिए जाती हैं तब उनकी घरेलू जिम्मेदारियाँ भी ज्यों-की-त्यों रहती हैं और उन पर दोगुना बोझ पड़ता है ऐसे में पारिश्रमिक का अन्तर औचित्यविहीन है।”

शकुन्तला (सहायक प्राध्यापक– हिन्दी- विभाग, आई० बी० स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पानीपत हरियाणा) का कहना है, “सूचना एवं तकनीकी-क्षेत्र से लेकर मनोरंजन-क्षेत्र तक तथा मज़दूरी से लेकर खेल-क्षेत्र तक, प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं के साथ एक तरफ़ तो वेतन में भेदभाव हो रहा है, तो दूसरी तरफ महिलाओं के कार्य को भी कम करके आँका जाता है। पुरुष-प्रधान समाज में यह मिथकीय धारणा है कि महिलाएँ ऐसे काम नहीं कर सकतीं, जिसके लिए शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है। इस मिथक धारणा को अधिकतर ऐसी महिलाओं की ज़िन्दगी नकारती है, जो प्रतिदिन के घरेलू-कार्यों में और फैक्टरी या खेतों में उत्पादनकारी श्रम खर्च करती हैं। अनुभवी परम्परावादियों का वैसा दृष्टिकोण महिला-पुरुष के बीच जैविक असमानताओं के कारण है। पुरुषों का महिलाओं को अपने अधीन बनाना भी इसका औचित्य है। ऐसे में, सोचना होगा कि जब तक समाज में महिला-पुरुष श्रम-विभाजन और पारिश्रमिक अन्तर रहेगा तब तक विश्व में सतत विकास और शान्तिपूर्ण माहौल की कल्पना करना व्यर्थ है।”

मधु गोयल (कवयित्री, लखनऊ) सोचती हैं, “प्राचीनकाल से कुछ रूढ़िवादी धारणाएँ महिलाओं की भूमिका को वंश-वृद्धि, परिवार की देखभाल तक तथा पुरुषों की भूमिका को जीविकोपार्जन तक सीमित करती हैं,जो कि उस काल के संदर्भ में तो कुछ हद तक सत्य कही जा सकती हैं; क्योंकि उस समय पुरुष-प्रधान समाज होने और नारी-शिक्षा के अभाव के कारण महिलाओं को हेय दृष्टि से देखा जाता था और शारीरिक- मानसिक रूप से दुर्बल समझा जाता था । आज स्थिति बिलकुल भिन्न है। शिक्षा की कोई उपाधि, नौकरी, व्यवसाय, राजनीति यहाँ तक कि भिन्न-भिन्न कार्यक्षेत्र जैसे रेल, बस, मेट्रो चलाने, लड़ाकू विमान उड़ाने, अन्तरिक्ष में जाने, यहाँ तक कि सेना में सीमा पर दुश्मनों के छक्के छुड़ाने में भी महिलाओं की बराबर की भागीदारी रही है। हाल ही में ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री ने लैंगिक आधार पर वेतन में असमानता समाप्त करने का वादा किया है। भारत अन्य देशों की तुलना में इस क्षेत्र में अब भी बहुत पीछे है। मेरे विचार में तो महिलाएँ घर और बाहर के उत्तरदायित्व समान रूप से निष्ठापूर्वक निभाती हैं, अतः इस तरह की विसंगति उनके साथ उचित नहीं है। विकास के हर क्षेत्र में महिलाओं के समान योगदान के कारण देश के विकास का श्रेय भी महिलाओं और पुरुषों को समान रूप से जाता है। इस दृष्टि से दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाना सर्वथा उचित है। यह तभी सम्भव है जब पुरुषों की मानसिकता बदले और कानूनी ढाँचे में आवश्यक परिवर्त्तन किये जायें।’

डॉ० घनश्याम भारती (हिन्दीविभागाध्यक्ष, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गढ़ाकोट, सागर (मध्यप्रदेश) का मत है, “वर्तमान में महिला-पुरुष के श्रम-विभाजन और उनके पारिश्रमिक में भिन्नता दृष्टिगत हो रही है। किन्हीं क्षेत्रों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में मेहनत की दृष्टि से कमज़ोर समझा जाता है तो कहीं-कहीं महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक मेहनत करते हुए नज़र आ रही हैं। खेतों में जब कटाई करने की बात आती है तब वहाँ पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ अधिक श्रम करते हुए दिखती हैं, जबकि उन्हें पुरुषों की तुलना में पारिश्रमिक कम दिया जाता है। दूसरी ओर, होटल या मॉल में श्रम करनेवाली महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा अधिक पारिश्रमिक दिया जाता है। मेरी दृष्टि में श्रम के आधार पर महिला-पुरुष को पारिश्रमिक दिया जाना न्याय संगत है।”

डॉ० अरुणप्रकाश पाण्डेय (शिक्षाविद् और पत्रकार, दिल्ली) की अवधारणा है, “स्त्री-पुरुष का लैंगिक वर्गीकरण शारीरिक बनावट है; लेकिन सामर्थ्य का अवलम्ब ब्राह्य रूप नहीं, अंतः प्रेरणा होती है। किसी भी प्रकार के श्रम, चाहे वह बौद्धिक हो या शारीरिक, का लैंगिक आधार पर विभाजन सर्वथा अनुचित है। इसी आधार पर श्रम का पारिश्रमिक तय करने में लैंगिक आधार पर पूर्वग्रह अथवा दुराग्रह अस्वीकार्य है। कार्यस्थलों और श्रम-नियमों को लैंगिक रूप से निरपेक्ष बनाते हुए कौशल, दक्षता तथा परिणाम को ही आधार माना जाये।”

राघवेन्द्र कुमार ‘राघव’ (पत्रकार, हरदोई) का मत है, “भारत में मुग़लकाल के पश्चात् एक धारणा बन गयी कि औरतें कमज़ोर होती हैं, मर्दों के बराबर वे हो ही नहीं सकतीं। औरतों को घर की दहलीज के भीतर रहना चाहिए । औरतों के लिये पर्दा है। ऐसी परिस्थितियों में महिलाओं को काम दिया जा रहा है, यही बहुत है। औरत और मर्द का ग़ैरबराबरी-सिद्धान्त आयातित है और भारतीय आयातित चीज़ को हमेशा ही अच्छा समझते आये हैं। भारत-जैसा देश जहाँ “नारी! तू नारायणी” और “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” की विचारधारा का पोषण हुआ हो, महिला-पुरुष श्रम-विभाजन और पारिश्रमिक में अन्तर की बात औचित्यहीन है। यदि हम अपनी जड़ों पर विदेशी मट्ठे की जगह घर का पानी डालने लग जायें तो भेदभाव की भावना मरते देर नहीं लगेगी।”

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय (परिसंवाद-आयोजक) का विचार है, “लोक में दो ही जातियाँ हैं :– प्रकृति (नारी) और पुरुष। उन दोनों ही जातियों की सामाजिक प्रतिष्ठा है; किन्तु जब महिला को उसे उसके अधिकार देने का विषय उठता है तब पुरुष-वर्ग एकपक्षीय बनकर पुरुषसत्ता का धौंस दिखाने लगता है। इसे हम नरेगा-मनरेगा तथा अन्य प्रतिष्ठानों-उपक्रमों में देख चुके हैं। ठीकेदार जब महिला श्रमिकों से काम लेता है तब काम लेने से पहले ही वह महिला का ‘पराधीन’, ‘अबला’, ‘दैहिक दृष्टि से कमज़ोर’ समझता है। यही कारण है कि वह महिला श्रमिक को दीन-हीन और भोग्या-रूप में देखते हुए, उसके साथ अन्याय करता है। उदाहरण के लिए– गाँवों में यदि प्रतिदिन के पारिश्रमिक के आधार पर पुरुष को जो पारिश्रमिक ३०० रुपये दिये जाते हैं, वहीं महिला को २०० रुपये दिये जाते हैं। यह असमानता अब दूर होनी चाहिए। इस विषय पर पुरुष-जाति को समानता का परिचय देना होगा।”