हम अपने भीतर का रावण क्यों नहीं जला पाते?

‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज का आन्तर्जालिक राष्ट्रीय बौद्धिक परिसंवाद-समारोह (पुनः प्रेषित– यह समारोह दो वर्ष पूर्व 27 अक्टूबर, 2020 ईसवी मे आयोजित हुआ था)।


‘बौद्धिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक तथा सामाजिक संस्था ‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज के तत्त्वावधान में एक आन्तर्जालिक राष्ट्रीय बौद्धिक परिसंवाद समारोह का आयोजन २७ अक्तूबर को प्रयागराज में हुआ।

समारोह में अध्यक्षता करते हुए, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयागराज के प्रधानमन्त्री श्री विभूति मिश्र ने कहा, “शताब्दियों से मनुष्य अपने अन्तस् में वैमनस्य, द्वेष, अहम्मन्यता, मात्सर्य, ईर्ष्या आदि विकारों को भरे हुए जी रहा है। उन्हें समाप्त करने के स्थान पर वह उनमें प्रतिपल बढ़ोतरी करता आ रहा है। यही कारण है कि उसके भीतर की आसुरी प्रवृत्ति समाप्त होने का नाम नहीं ले रही है। वह अपने मन का भ्रम मिटाने के लिए प्रतिवर्ष ‘रावण’ को जलाता रहता है; परन्तु वह अपने भीतर के रावण को जलाने के विषय में सोच तक नहीं पा रहा है।”

वरिष्ठ पत्रकार श्री रमाशंकर श्रीवास्तव का विचार है, “हमारे भीतर तो रावण न जाने कब से जल रहा है, जिसका परिणाम होता है, मनुष्य अपनी इन्द्रियों की इच्छापूर्ति करने के लिए तरह-तरह के पापाचार करने में लगा हुआ है। प्रतीकात्मक रूप में हम उस रावण को जलाते तो हैं। काम, क्रोध, मद, लोभ के रूप में हमारे भीतर का रावण मानवीय मूल्यों को ध्वस्त करता आ रहा है। आज उसके शमन और नियमन की आवश्यकता है।”

श्री सुरेश सिंह यादव (अवकाश-प्राप्त न्यायाधीश, आगरा) ने कहा, “महाप्रतापी, प्रकाण्ड विद्वान् , शिव-ताण्डव स्त्रोत के रचयिता आदिक कितने ही विशेषणों से युक्त रावण की पराजय होने का सबसे बड़ा कारण उसकी अहंकारी प्रवृत्ति थी। युग गुज़र गये; लेकिन हममें अहंकार अभी तक ज़िन्दा है। हमारे आचरण में अहंकार से निवृत्ति नहीं है और मर्यादा के सम्मान की प्रवृत्ति नहीं है। हम सत्य और झूठ के विषय में निरपेक्ष नहीं, सापेक्ष हैं; अर्थात् सत्य के समर्थन और झूठ के विरोध के लिए हमारी अपनी-अपनी शर्तें होती हैं। ऐसे प्रयासों से हम एक बुराई के बदले दूसरी बुराई को अनायास ही स्थापित करने में लगे रहते हैं । हम ईश्वर को भी प्रेमवश नहीं, भयवश पूजते हैं और राम की मर्यादा का पालन भी हम अपनी शर्तों पर ही करते हैं। हम रावण ज़िन्दा ही इसलिए रखे हुए हैं, ताकि हर साल उसके पुतला दहन के साथ स्वयं को राम का अनुगामी साबित कर सकें। राम को हम अपना इष्ट तो मानते हैं; लेकिन जीवन का अभीष्ट बनाने के लिए किंचित भी त्याग करने को तैयार नहीं हैं। हम अपने व्यष्टिवादी आचरण से अपने अन्दर के रावण को संजीवनी देते रहते हैं। हमारा आचरण समष्टिवादी नहीं है, इसलिए हम अपने भीतर का रावण नहीं जला पाते।”

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

परिसंवाद-आयोजक, आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने कहा, “रावण की पापबुद्धि सभी में व्याप्त है। उसकी इच्छाएँ, महत्त्वाकांक्षाएँ इतनी प्रबल रहती हैं कि वह “एकोSहम् द्वितीयोनास्ति” को जीता रहता है। रावण सशरीर स्वर्ग जाने की तैयारी कर मूल सृष्टि-विधान को ललकार रहा था। कलियुग के रावण भी नितान्त कलुषित कृत्य कर, समूची मानव-सभ्यता के लिए एक दुर्दान्त पात्र बन चुके हैं। आज लगभग प्रत्येक व्यक्ति चरित्र-स्तर पर दुर्बल और शिथिल दिख रहा है। यही कारण है कि वह अपने भीतर के रावण को मारने की जगह निर्जीव पुतले का दहन कर अपने कृत्रिम पुरुषार्थ का परिचय देता आ रहा है।”

डॉ० सूर्यकान्त त्रिपाठी (सहायक प्राध्यापक– दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर) ने कहा, “विकासवाद की अन्धी दौड़ में मनुष्य के आत्मावलोकन की प्रवृत्ति तिरोहित होती जा रही है व्यक्ति-पक्ष की दृष्टि से यह प्रवृत्ति अत्यावश्यक है। आत्मजागृति का अभिप्राय ही सद्प्रवृत्तिशील होना है। इसी सुशीलता के जीवनदर्शन के कारण राम मर्यादापुरुषोत्तम कहलाये, जो आज जनमानस के लिये जीवन-सरणि है। आत्मावलोकन के द्वारा दुष्प्रवृत्ति रूपी रावण का दहन सम्भव है। आज सम्पूर्ण विश्व सांस्कृतिक प्रदूषण से कराह रहा है। हम सबको उदात्त जीवन-मूल्यों का निरूपण अपने व्यक्तित्व में करना होगा, तभी मानवता का रक्षण सम्भव है।”

श्री निशा पाण्डेय (अध्यापक, प्रयागराज) का विचार है, “व्यक्ति अपने भीतर के समस्त विकारों को लेकर ताउम्र जीता रहता है और जो लोग स्वस्थ और सुरक्षित जीवन जी रहे होते हैं, अपने आचरण से उनके जीवन में ज़हर घोलता रहता है। इस कष्ट से कोई बच रहा हो, यह सम्भव ही नहीं है। यही रावण का भी चरित्र था। वह इतना मदान्ध हो चुका था कि अनेक देवताओं को अपने अधीन कर रखा था। यही मदान्धता मनुष्य को उसके भीतर के रावण को मारने नहीं देती और वह प्रतिवर्ष अपने भीतर के रावण को जलाने का असफल प्रयास करता आ रहा है।”

डॉ० कृपाशंकर पाण्डेय (सहायक प्राध्यापक– मुंगेर विश्वविद्यालय, मुंगेर) का अभिमत है, “सामान्यतः देखा जाता है कि हम अपनी बुराइयों को छिपा ले जाते हैं और अच्छाइयों का छद्म प्रदर्शन करते रहते हैं। हमारे अन्दर काम, क्रोध, मद लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या इत्यादिक मनोविकार विद्यमान हैं; परन्तु हम उन्हें नजरअंदाज़ करते रहते हैं। दशहरे पर हम हर वर्ष रावण को जलाते आये हैं; परन्तु आत्मविश्लेषण करें तो हमें अपने अन्दर ही एक ख़तरनाक रावण दिखेगा। यह दुःखद आश्चर्य है कि हम अपने अन्दर के मनोविकार- रूपी रावण को जलाने के बजाय इसे पालते-पोषते रहते हैं। जब तक हम अपने अन्दर के रावण का दहन नहीं करेंगे तब तक बाहर के रावणरूपी पुतले को जलाते रहने से एक अच्छे समाज का निर्माण नहीं कर सकेंगे। एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए हमें अपनी बुराइयों के प्रति सतर्क होना पड़ेगा और उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना होगा। यह कार्य हमें स्वयं ही करना होगा, कोई दूसरा इसमें मददगार सिद्ध नहीं सकता।”

वरिष्ठ पत्रकार श्री सुधीर अग्निहोत्री ने कहा, “रावण को जलाकर हम बहुत ख़ुश होते हैं और इसे बुराई पर अच्छाई का प्रतीक मानते हैं। सवाल यह उठता है, यदि बुराई के प्रतीक रावण का पुतला फूँकने से समाज सुन्दर बन जाता तो आज यह समाज निर्मल और स्वच्छ होता। विडम्बना यह है कि आज घर-घर रावण है, जिसके कारण समाज पथभ्रष्ट हो चुका है। यह विडम्बना इसीलिए है कि हम न तो व्यावहारिक स्तर पर अपने अन्दर के रावण को जला पाते हैं और न ही राम के आदर्शों को अपना पाते हैं। रावण हमारे भीतर कई रूपों में मौजूद है। यथा– मिथ्या अभिमान, काम, क्रोध, मद, लोभ , मोह, तामसिक प्रवत्तियाँ विद्वेष , छ्ल, ईर्ष्या आदि। रावण के यही वे दस शीश हैं, जो उसकी पहचान से बाबस्ता हैं। जिस दिन हम अपने अन्दर से इन्हें जलाकर भस्म कर देंगे, उस दिन से यही समाज आदर्श-रूप में हमारे सामने होगा। इसके लिए ज़रूरी है कि हम रावण-दहन के उत्सवधर्मी खोल से बाहर निकलें और अपने भीतर के रावण को जलाने का हुनर सीखें।”

डॉ० संगीता श्रीवास्तव (सचिव– पण्डित राहुल सांकृत्यायन शोध एवं अध्ययन-केन्द्र, वाराणसी) ने कहा, “हम अपने भीतर का रावण क्यों नहीं जला पाते; क्योंकि आज के कलयुगी समय में संस्कार, आचरण नैतिकता, धार्मिकता, मानवता तथा संस्कृति का क्षरण और पतन हो गया है। व्यक्ति घोर अहंकार, लिप्सा, मोह तथा भौतिक छद्म में डूबा हुआ है। व्यक्ति में संतुष्ट होने की भावना और धैर्यशीलता समाप्त हो गयी है। व्यक्ति स्वकेन्द्रित और स्वार्थी हो गया है। वह स्वयं के लाभ और हानि से ही प्रेरित हो रहा है और आडम्बरपूर्ण जीवन जी रहा है। उसके लिए सामाजिकता और परहित भी क्षुद्र स्वार्थपूर्ति का साधन बन गया है। व्यक्ति कल्याण की उत्तम भावना से विरक्त और “वसुधैव कुटुम्बकम्” के प्रति अनासक्त हो गया है।”

कवयित्री श्री उर्वशी उपाध्याय ‘प्रेरणा’ (प्रयागराज) का कहना है, “पाश्चात्य सभ्यता की दौड़ में हम अपनी भारतीय संस्कृति की लगातार अवहेलना कर रहे हैं। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। दादी-नानी की कहानियाँ, जो कि संस्कार की एक सचल परिपाटी होती थी, आज के एकल परिवार की व्यवस्था में लुप्त हो चुकी है। इस कारण संस्कृति की व्यावहारिक गति अवरुद्ध हो गयी है। किसी के जैसा बनने-जीने की चाहत में हम अपनी मर्यादा और क्षमता को भुला देते हैं और अमर्यादित आचरण को अपना अधिकार समझने लगते हैं, जबकि अन्य को उसके ऐसे कृत्य के लिए दोषी ठहराया जाता है।”

श्री राघवेन्द्र कुमार ‘राघव’

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक श्री राघवेन्द्र कुमार ‘राघव’ (हरदोई) का मत है, ”रावण’ बुराई का वह रूप है, जो हमें दूसरों में दिखायी देता है और स्वयं में उसका अनुभव तक नहीं होता, इसीलिए बार-बार हम रावण को जलाते हैं। यदि स्वयं में रावणत्व का तनिक भी भान हो जाये तो व्यक्ति उसे कतई नहीं जलाये। व्यक्ति को अपने भीतर झाँकने के लिए अन्तर्द्वन्द्व से निबटने का साहस और सत्यान्वेषण करने की क्षमता होनी चाहिए। दोहरे चरित्र ओढ़नेवालों में सत्यान्वेषण का नितान्त अभाव रहता है। व्यक्ति को अपने पर अर्थात् ‘राम’ पर विश्वास ही नहीं है । “श्रेयानस्वधर्मो” की बात उसे मिथ्या प्रतीत होती है। हम कर्म और कान के कच्चे हैं। राम की बात करते हुए भी हम रावण का अनुसरण करते हैं । रावण दोहरे चरित्रवाला एक प्रतिनायक है, ठीक उसी भाँति आज का प्रत्येक व्यक्ति दोहरा चरित्र को जीते हुए, अपने भीतर के ‘रावण’ को ढोता आ रहा है।”

आदित्य त्रिपाठी (सहा० अध्यापक, बे०शि०प०)

श्री आदित्य त्रिपाठी (अध्यक्ष– महर्षि विवेकानन्द ज्ञानस्थली, हरदोई) की अवधारणा है, “मन के लिए सद् वा असद् कुछ नहीं होता है, यदि कुछ है तो वह है, भोग-विलास । रावण इसी विलासिता का एक रूप है। हमें अपने मन के भीतर बसे रावण को पराजित कर उसका काम तमाम करना अति दुष्कर कार्य प्रतीत होता है; ऐसा इसलिए कि अधिकांश लोग को अपने बड़े-बुजुर्गों और शुभचिन्तकों की हितकारी सलाह फूटी आँख नहीं सुहाती; परन्तु हमें विनाश की ओर ले जानेवाले चाटुकारों की बातें अत्यन्त प्रिय लगती हैं। सत्ता-मद अथवा अन्य मदों में चूर व्यक्ति स्वयं को ही श्रेष्ठ समझने लगता है। श्रेष्ठता का यही भ्रम उसके अन्तस् में ‘रावण’ उत्पन्न कर देता है, फिर वह अपने मन में उत्पन्न सद्विचाररूपी विभीषण का त्याग कर, उसका दमन कर देता है, फलस्वरूप उसके मन में रामरूपी अग्नि का प्राकट्य नहीं होता और वह रावण को जला नहीं पाता। अतः हमें अपने उस अँधेरे मन में रामरूपी ज्योति की प्रतिष्ठापना करनी होगी, ताकि मानसिक रावण का दहन हो सके।”

साहित्यकार श्री आरती जायसवाल (रायबरेली) का कहना है, “हमारे नेत्रों पर लोभ का आवरण तथा हृदय में अभिमान भरा हुआ है। त्याग की प्रवृत्ति न होने के कारण हम सद्कर्म से विमुख ‘भोग-लिप्सा’ में संलिप्त रहते हुए जीवन-यापन करते हैं, अतएव हम अपने भीतर के रावण को पहचानते हुए भी जला नहीं पाते हैं।”

डॉ० पूर्णिमा मालवीय (प्राचार्य, प्रयागराज) ने बताया, “मेरे विचार से सभी को अपनी बुराई-अच्छाई का आकलन अवश्य करना चाहिए। भूले से भी किसी की भावना को आहत न करें। अहंं भाव सभी में है, जिस पर नियन्त्रण बहुत ज़रूरी है। आप यदि किसी का मान नहीं कर सकते हैं तो अपमान भी नहीं करें। आज जिस तरह से प्रतिदिन समूचे देश में सीताहरण और द्रौपदी-चीरहरण हो रहा है, वह बहुत ही चिन्तनीय है। ये घटनाएँ जब तक होती रहेंगी, प्रतीकात्मक रावण जलाया जाता रहेगा।”