
पापा पुरुषार्थ में विश्वास रखते थे और अम्मा अनुकंपा में। पापा का विश्वास था कि मनुष्य अपने श्रम से, पौरुष से अपना अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त कर सकता है जबकि अम्मा का दृढ़ मत था कि ईश्वरीय कृपा के बिना मनोकामनाओं का पूर्ण हो पाना संभव नहीं है। भाग्य की, नियति की भी मनुष्य के जीवन में उतनी ही महती भूमिका होती है।
संभवतः इसीलिए पापा जीवन भर केवल कर्म करने, पुरुषार्थ करने की सलाह देते रहे। हमारी किसी भी असफलता के लिए वह श्रम में कमी, पर्याप्त प्रयास न करने को जिम्मेदार मानते थे जबकि अम्मा इसके लिए भाग्य को, किस्मत को, ईश्वरीय इच्छा को जिम्मेदार मानती थी।
ईश्वर की कृपा हम सब पर बनी रहे इसके लिए अम्मा हर संभव प्रयास करती थी। बृहस्पतिवार का व्रत रखती, पूरे नवरात्र उपवास करती। बचपन में परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने, किशोरावस्था में नौकरी मिलने, युवावस्था में हमारे उज्ज्वल भविष्य , स्वास्थ्य और सुख शांति के लिए भगवान भोलेनाथ से, मां दुर्गा से प्रार्थना करती।
मनोकामना पूर्ण होने पर प्रसाद बांटती, दुरकईंयां चबवाती, सत्यनारायण स्वामी की कथा सुनती, दुर्गा मां को पियरी चढ़ाती, शिवमंदिर में घंटा बांधती। बचपन का तो नहीं लेकिन किशोरावस्था का मुझे याद है कि जब मेरा वायुसेना में चयन हुआ तो उन्होंने घर में अखंड रामचरित मानस का पाठ कराया था और इस तरह मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की थी।
जब तक मैं लालगंज बैसवारा में था तो अम्मा भुइयन महारानी, बाल्हेश्वर बाबा , संकठा माता की मानता मानती थी। वायुसेना में गया तो अम्मा की मानतायें स्थानीय से राष्ट्रीय हो गई। बीदर में नरसिंह झिरा से, भाग्यनगर (हैदराबाद) में बिरला मंदिर, मद्रास (चेन्नई) में तिरुपति बालाजी, बैरकपुर (कोलकाता) में दक्षिणेश्वर मंदिर, तेजपुर (गुवाहाटी) में कामाख्या मंदिर , चंडीगढ़ में मनसा देवी और जम्मू में वैष्णो माता से कुछ न कुछ मानता मान ली।
हालांकि मेरी भी ईश्वर में अटूट आस्था है। लेकिन मैं हमेशा ही अम्मा से निवेदन करता था कि मानता वही मानो जिसे हम आसानी से पूरा कर पाएं। सारे भगवान तो एक ही हैं, फिर दूर के और प्रसिद्ध मंदिर में मानता क्यों मानना? पास वाले मंदिर में प्रतिदिन मानता मानो, तब भी उसे पूरा करने में कोई परेशानी नहीं होगी।
लेकिन अम्मा मेरी बात एक कान से सुनती, दूसरे से निकाल देती। क्योंकि उनका मानना था कि प्रत्येक देवी- देवता का अलग कार्यक्षेत्र है। मां सरस्वती विद्या की देवी हैं तो मां लक्ष्मी धन की। दुर्गा मां प्रेम और करुणा की देवी हैं तो काली मां शक्ति और साहस की। भगवान गणेश बुद्धि के देवता हैं तो बजरंग बली बल के धनी हैं। कृष्ण जी प्रेम के स्वामी हैं तो भगवान राम नेम (मर्यादा) के। भगवान शिव औघड़ दानी हैं, उनसे कोई भी और कुछ भी मांग सकता है। इसलिए किसी भी देवी-देवता से वही वही कामना करनी चाहिए, वही मानता मांगनी चाहिए जो उनका कार्यक्षेत्र हो और जिसे वह आसानी से पूर्ण कर सकें।
हालांकि इस बात पर हमारी कभी सहमति नहीं बनी। मेरे पास तर्क की तेज़ तलवार होती तो अम्मा के पास बिस्वास और भक्ति की अटूट, अभेद्य ढाल। इसलिए अम्मा अपनी बात मनवाने के लिए कूटनीति का सहारा लेती थी। पहले मुझसे बताए बिना मानता मान लेती, फिर अनुकूल समय में श्रीमती जी के सामने उसका उल्लेख करती थी ताकि बहुमत 2-1 से उनके पक्ष में रहे। बच्चे कुछ बड़े हुए तो वह भी मां और दादी की तरफ हो जाते थे। अतः पिछले कुछ वर्षों से मैं 4-1 से हारने लगा था।
अम्मा ने साम, भय, भेद का प्रयोग करके देश भर में मानी गई अपनी सारी मानताएं पूरी करवा ली थी, बस बिरला मंदिर हैदराबाद और वैष्णो माता की मानता बची थी। वर्ष 2022 में सपरिवार बिरला मंदिर हो आया तो बस वैष्णो देवी के दर्शन बच गए थे। पिछले वर्ष अम्मा कुछ ज्यादा ही बीमार पड़ी तो मुझसे बड़े गंभीर स्वर में बोली- “बच्चा, हमरे जियत -जियत सब मान-मनौती पूरी करि दियो। का पता कब भगवान हमका बोला लियें। बाकी सब पूरा होइन गईं हैं, बस वैष्णो देवी के दर्शन अउर करि आव।”
अम्मा की वाणी में इस बार पहले की तरह अधिकार न था, जोर न था कूटनीति तो बिल्कुल भी न थी। ऐसा प्रतीत होता था कि शरीर के साथ अम्मा का मन भी दुर्बल हो चला था। या हो सकता है कि ईश्वर पर अटूट श्रद्धा रखने वाली अम्मा ने नियति का लेखा पढ़ लिया हो। उनके स्वर में कुछ तो ऐसा था जिसे मैंने पहले कभी नहीं सुना था। उनकी आवाज इस बार शायद ‘उनकी’ नहीं थी। मैं सचमुच डर गया था।
इसलिए बिना टालमटोल किये सपरिवार 29 मई 2024 को वैष्णो देवी के दर्शन के लिए चल पड़ा। तीस तारीख को कटरा वापस आया और अम्मा के नम्बर पर फोन मिलाया तो उधर से आवाज अम्मा की नहीं बल्कि छोटे भाई की आई। उसने लगभग रोते हुए कहा कि अम्मा सुन तो सब कुछ रही हैं, लेकिन बोल कुछ नहीं रहीं। स्थानीय डॉक्टर से बीपी, शुगर चेक कराया गया तो लगभग ठीक ही आया। बाकी का इलाज करना उसके वश में न था।
मैंने छोटे भाई से कहा कि अम्मा को तुरंत ही रीजेंसी हॉस्पिटल कानपुर में एडमिट करा दो। मैं भी जम्मू से दिल्ली पहुंचकर , पत्नी और बच्चों को दिल्ली में ही छोड़कर कानपुर पहुंच गया। अम्मा से मिला तो हृदय रूदन कर उठा। एक महीने पहले अप्रैल में घर गया था तो वह ठीक ही थी। लखनऊ में जांच कराया था तो सीटी स्कैन सहित उनकी सारी रिपोर्ट भी लगभग नॉर्मल ही आई थी। लेकिन एक-डेढ़ महीने में ही उनका शरीर बिल्कुल जर्जर हो चुका था, आवाज लड़खड़ा रही थी। ऐसा प्रतीत होता था कि पिछले दो वर्षों से कैंसर से लड़ती और उसे मात देती आई अम्मा अब सचमुच थक चुकी थी।
लेकिन उनके चेहरे पर पीड़ा के साथ संतुष्टि का भाव भी था कि पापा की छोड़ी हुई तमाम अपूर्ण जिम्मेदारियों का वह ठीक से निर्वहन कर पाई। चारों बच्चों की शादी कर दी, सब अपनी गृहस्थी में रम गए। सारी मानताएं पूरी हो गई। जीवन की सारी अभिलाषायें? पूरी हो गई थी।
हां, छोटे भाई और उसकी दो बच्चियों के भविष्य के प्रति वह थोड़ी चिंतित जरूर थीं। वह उनके लिए कुछ करना चाहती थी। करना तो वह अपने नाती -पोतों का विवाह भी अपने सामने चाहती थी। कम से कम नातिनों का कन्यादान जरूर करना चाहती थी।
मेरे साथ बड़ी सी कार में बैठना चाहती थी।
मुझे बड़ा अधिकारी बनते देखना चाहती थी।
——–
उनकी अभिलाषायें चाहे पूर्ण हो चुकी हों लेकिन तमाम इच्छाएं अभी भी शेष थी।
अम्मा का इलाज कर रहे डॉक्टर मयंक मेहरोत्रा ने मुझे 05 जून 24 को ही बता दिया था कि उन पर इलाज का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ रहा है। आप चाहें तो इन्हें घर ले जा सकते हैं। यह सुनते ही मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। मैं अम्मा को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता था, पर उनकी पीड़ा भी मुझसे देखी नहीं जा रही थी। एक बेटे के लिए इससे अधिक पीड़ादायक और क्या हो सकता है कि वह अपनी जननी को, अपनी मां को चाहकर भी पानी न पिला पाए। वह बार बार मुझसे पानी मांगती और मैं अभागा बस रुई के फाहे से उनके ओंठ गीले कर देता।
किंतु पिछले 46 वर्ष से जिस मां ने बिना मांगे ही मुझे सब कुछ दिया, पिछले 15 वर्ष से जिस मां ने मुझे मां-बाप दोनों का प्यार दिया, मेरे लिए इंसानों से लेकर भगवान तक से लड़ती रहीं, अपने आँचल की छाया सदैव मेरे सिर पर रखी। जिस जननी ने मेरी जरा सी पीड़ा पर आसमान सिर पर उठा लिया, उसे मैं इतनी आसानी से अपने से दूर कैसे जाने देता। अतः मैंने डॉक्टर से निवेदन किया कि दो साल से अम्मा मौत से लड़ती आई हैं, इस बार मेरे कहने से दो दिन उन्हें और दीजिए। I was hoping against the hope.
इन दो दिनों में डॉक्टरों ने दो बार उनकी एंडोस्कोपी करने का प्रयास किया, दो यूनिट रक्त भी चढ़ाया पर अम्मा की शारीरिक हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। हालांकि दिमाग उनका पूरी तरह सक्रिय था। वह बार-बार पानी पीने और घर चलने की जिद करती रही। अपनी दुर्बल और अस्पष्ट आवाज में बार-बार बताती रही कि उनके देह त्याग करने का समय आ चुका है। माँ वैष्णो देवी उन्हें अपने धाम में बुला रही हैं। अंततः मुझे चिकित्सक की सलाह और अम्मा की इच्छा का सम्मान करना ही पड़ा। 07 जून 24 को मैं उन्हें वापस घर ले आया।
अम्मा के घर पहुंचते ही उनको देखने आने वाले शुभचिंतकों की भीड़ लग गई। अम्मा भी घर पहुंचकर संतुष्ट सी दिख रही थी। क्योंकि यह वही घर था जिसकी एक- एक ईंट पापा ने अपने पुरुषार्थ से और अम्मा ने अपना पेट काटकर, अपनी तमाम स्त्रीसुलभ इच्छाओं को तिलांजलि देकर रखी थी। इस घर को सजाने, संवारने में अम्मा ने अपना पूरा जीवन होम कर दिया था। यह वही घर था जिसकी वह मालकिन थी, एकक्षत्र साम्राज्ञी थी।
‘कमला सदन’ की स्वामिनी ने 08 जून 2024 को सुबह 0930 बजे अपने प्रियजनों के समक्ष, अपने इस अभागे पुत्र के समक्ष इस इहलोक से, ‘कमला सदन’ से सदैव के लिए विदा ले लिया। वह हम सबको अनाथ छोड़कर स्वर्गीय पापा के पास, मां वैष्णो देवी के धाम चली गईं।
(मुन्ना, अम्मा का अभागा पुत्र)