जीवनदाता परम पूज्यनीय पिता जी के नाम ‘चिट्ठी’

सुधीर अवस्थी ‘परदेशी’ (बघौली, हरदोई)-


छोटे-बड़े सम्मानित साथियों यह रचना मखौल नहीं मेरे दिल के उदगार हैं। जो पिताजी के याद में लिख गए । आपकी समझ में आपका इससे कोई सरोकार भले न हो लेकिन मेरी उंगलियां तो इसी सत्ता की बदौलत चलीं हैं। बता दें कि 21/22जुलाई2016 को 12ः56बजे रात्रि में पूज्यनीय पिताजी का स्वर्गवास हो गया था। जिनकी याद में यह चिट्ठी लिख गई। 

जीवनदाता परम पूज्यनीय सदा-सदा स्मरणीय स्व0 पिताजी के नाम !
हे मेरे जीवनदाता मुझको इस संसार के दर्शन कराने वाले पिताजी ! पिताजी! पिताजी ! कहां हो ? आपको तो मेरे बिना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। अब तो एक साल गुजर गया अब क्या आपको मेरी याद नहीं आती ? जब भी कभी घर से बाहर रहने का मन बनाया आपने सदा कहा भैया हम तुम्हारे बिना नहीं रह सकते। जब भी कभी नौकरी करने के लिए कोई प्रयास किया तो आपने कहा भैया इतना बना दिया कि पड़े-पड़े खाना आराम से रहना कुछ कम नहीं पड़ेगा। जीवन में सादगी और संस्कारों को ऐसा घोल दिया कि कोई कुछ भी खाए कैसे भी रहे अपने आप तो साधारण और सामान्य रहने की आदत हो गई।
पिताजी ! मैं आपके बिना बहुत परेशान हूं। मुझे नहीं पता था कि आपके जाते-जाते मेरी आजादी और स्वतन्त्रता छिन जाएगी। मैं घर -परिवार की तमाम उलझनों से जूझ रहा हूं। तमाम जिम्मेदारियों का बोझ मुझसे ढ़ोया नहीं जा रहा। आपके मन और विचारों के अनुसार अपनी कार्यशैली नहीं चल पा रही। आपके द्वारा दी गई हिदायतों और नसीहतों को भी पूरी तरह से जीवन में नहीं उतार पा रहा हूं। जब भी आपकी याद आती है तो रोने के सिवा मेरे पास कोई विकल्प नहीं होता। यह बात अलग है कि परिवार में न सही अकेले में अपने व्याकुल मन की करूण कथा मन ही मन सोचकर रो लेता हूं।
पिताजी ! तब मुझे बहुत याद आती है जब घर परिवार में कोई काम-काज हो। इन नजरों को आपका वह निर्णायक चेहरा नजर नहीं आता जिसके आदेश पर अपने को सोच-विचार करने में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। घर की जरूरतें हों या फिर खेती-बाड़ी की व्यवस्था आपके आदेश से संचालित होती थी। अब तो आपका दायित्व अम्मा बखूबी निभा रही हैं। फिर भी पिताजी आपकी तो बात ही कुछ और थी। मुझे याद है कि जब भी कोई काम मैं शुरूवात करने चलता तो आप उसे पूरा करते थे। आपका अथक परिश्रमी स्वभाव और नियम-धर्म स्थानीय गांव-समाज भलीभांति जानता है। मुझे गर्व है कि आप जैसे महान व्यक्ति को पिताजी कहने का गौरव प्राप्त हुआ।
पिताजी ! सरकार, नामचीन हस्तियां आपको याद करें ऐसा कुछ भले ही आपने न कर पाया लेकिन स्थानीय समाज और घर-परिवार आपका जीवन्त ऋणी रहेगा। परिवार के लिए आपके द्वारा बहुत कठिन परिश्रम कर जो प्रापर्टी सहेजी और बढ़ाई गई वह अपने आप में मिसाल है। अपने को कष्ट देकर भी सबको सुख पहुंचाने की मंशा सदैव स्मरणीय रहेगी।
पिताजी ! मेरी हकीकत तो आपसे छुपी नहीं आज भी मैं आपके टुकड़ों पर ही पल रहा हूं। कोई ऐसा व्यवसाय कारोबार नहीं जिससे अपनी गुजर-बसर हो सके। जनसेवा केन्द्र में इतनी कमाई नहीं जो घर परिवार की व्वस्था दुरूस्त रह सके। अखबार तो लगातार हमको घटाने का काम कर रहा है। ऐसे में तमाम दोस्त मित्र हमारा मखौल बना रहे हैं। तमाम लोग मेरी बात को सुनकर मीठी चासनी मेें अक्षरों को भिगोकर शब्दमाला से हमें समझाने का काम करते हैं। लेकिन अफसोस यथेचित सहयोग करने वाला कोई नहीं।
पिताजी ! सर्वप्रथम अम्मा जी को यथा सामर्थ्य भोजन कराने के बाद ही भोजन पाता हूँ। शाम को सोने से पूर्व दोनों पुत्र और पत्नी सहित अम्मा की सेवा कर विश्राम करता हूँ। ऐसे में मैं कहीं बाहर नहीं जा सकता क्योंकि हिन्दुस्तान अखबार से जुड़े होने के साथ ही जनसेवा केन्द्र संचालक हूँ। वास्तव में जितना परिश्रम यहां पर कर रहा हूं अगर बाहर चला जाऊँ तो बेहतर होता। बाहर के भोजन से परहेज, नित्य यज्ञकर्म और पूज्यनीय अम्माजी की सेवा बाहर जाकर सम्भव नहीं ऐसे में हम जहां के तहां हैं। पिताजी आप न जाने कहां हो ? पिताजी ! कहां खोये हो ? अपने बेटे पर तरस करो । अब भावुकतावश कुछ भी आगे नहीं लिख पा रहा हूँ ।