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‘मुक्त मीडिया’ का ‘आज’ का सम्पादकीय

पृथ्वीनाथ पाण्डेय

आज हमारी देवनागरी लिपि और हिन्दीभाषा अपने मौलिक अभिज्ञान (परिचय/पहचान) से सुदूर होती जा रही हैं, जिसके प्रति किसी को चिन्ता तक नहीं। सच तो यह है कि अधिकतर स्वयम्भू ज्ञानी हमारी वैज्ञानिक और शास्त्रीय लिपि ‘देवनागरी’ को संदूषित करते आ रहे हैं और जो सम्बन्धित शैक्षणिक संस्थानों में नियमत: नियुक्तियाँ पाते हैं, उनमें से अधिकतर अयोग्य होते हैं; क्योंकि वे ‘आरक्षण’ के अन्तर्गत पात्रता अर्जित करते हैं; सवर्णों में से भी जो चुने जाते हैं, उनमें से भी ‘उत्कोच’ (रिश्वत), पहुँच इत्यादिक कुत्सित और शिक्षाघाती प्रयासों के बल पर जो कथित प्रोफ़ेसर बनते हैं, वे शिक्षाविनाशी होते हैं।

कहाँ हैं, देश के विश्वविद्यालयों में अध्यापकीय कर्म के नाम पर प्रतिमाह लाखों रुपये डकारनेवाले तथा अन्य प्रकार के शैक्षिक सस्थानों में कार्यरत भाषाविज्ञानी, भाषाशास्त्री तथा भाषापण्डित? वे इस पर कुछ तो कहें? सीधे रूप में ऐसे ही लोग इसके लिए उत्तरदायी हैं, जो ‘प्रोफ़ेसर’, ‘आचार्य-प्रचार्य’ बने हुए हैं और समाज में अपनी हेकड़ी दिखाते रहते हैं।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २३ मार्च, २०२० ईसवी)