डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
क्लान्त-विश्रान्त
एकाकी पथिक के कर्ण-कुहरों में
अनुगूँजित स्वर-माधुर्य
उसे साथ ले
निसर्ग-पथ पर गतिमान् है |
मोक्ष की अभीप्सा में
इहलोक-परलोक की अन्तर्यात्रा
गन्तव्य की अवधारणा के साथ
संपृक्त होती संलक्षित हो रही है |
माया की काया-छाया
धूलि-धूसरित विग्रह-सदृश
मूर्त्तिमान हो उठी है |