“अथ से इति” का मर्म धारण करें


— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

साम्प्रतिक काल विघटन और संक्रमण का है, जो काल का चक्रीय अनुशासन है। ऐसी स्थिति में, संघटन, सह-अस्तित्व तथा सदाशयता की भावना और सद्इच्छा के साथ प्रबल जिजीविषा (जीने की इच्छा) है और जिगीषा (जीतने की इच्छा) को मित्र के रूप में धारण कर, कण्टकाकीर्ण पथ को स्वत:-स्फूर्त चेतना के बल पर प्रशस्त करते हुए, हम सभी को अपनी चिर-परिचिता विजयिनी शक्ति को कहीं से भी शिथिल नहीं होने देना है।

अप्रत्याशित शब्द-निर्झरिणी के स्रोत का प्रस्फुटन होता है तब उसमें एक निश्चित और सन्तुलित लय के साथ प्रवाह प्रारम्भ होता है; गति होती है तथा एक दुर्धर्ष मृत्यु-चिन्तन का प्रतिबिम्बन भी होता है। ये सभी क्रियाएँ-अनुक्रियाएँ-अन्त:क्रियाएँ-अभिक्रियाएँ हमारे अवचेतन में ही वास करती है; परन्तु जब वे चेतना के धरातल से साक्षात् करने लगती हैं तब मन-प्राण आन्दोलित हो उठता है। यहीं पर धैर्य और संयम का परीक्षित विग्रह मनोनुकूल आकार ग्रहण करता संलक्षित होता है, जो हृदय का परिष्कार के सन्निकट ले जाता है।

जीवन के प्रति जो मोह होता है, वही व्यामोह का कारण-रूप लक्षित होता है। वास्तव में, मृत्यु-चिन्तन से जीवन के प्रति एक बृहद् और व्यापक दृष्टिबोध जाग्रत होता है, जो इस अवधारणा-धारक को मनसा-वाचा-कर्मणा ससीम से ‘असीम’ तक की यात्रा कराता है। यह सत्य है कि जिसने भी जीवन के ‘अ’ को आत्मसात कर लिया, वह “अथ से इति” के समग्र को ग्रहण कर लेता है; क्योंकि कर्त्तव्याकर्त्तव्य के मूल दर्शन की मीमांसा करना; निष्पत्ति अर्जित करना तथा उसे ऐहिकता से सम्पृक्त करना, उसका ध्येय रहता है; लक्ष्य और उद्देश्य भी, तभी स्वर निनादित होता है, “सर्वे भवन्तु सुखिन:।” उस नाद में ऐसी ऊर्जा होती है, जो मनुष्य को ‘चरैवेति-चरैवेति’ की मूल संकल्पना से सम्पृक्त कर जीवन-यात्रा का पाथेय बना देती है और उस प्रयोजन-सिद्धि-हेतु उसका पथ प्रशस्त करती रहती है।

आइए! हम इस संकल्पना को साकार करते हुए, जीवन-दर्शन के कोण को विस्तृत करें, बृहद् तथा व्यापक भी।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १८ मई, २०२० ईसवी)