बरी गांव की पहचान अब भी ‘धान के कटोरे’ के रूप में

बैसवारा के ‘बरी’ गांव को दशकों से ‘उसरहा’ गांव कहा जाता रहा है। कई बरदेखा (लड़की वाले) तो इसलिए भी इस गांव में अपनी बेटी का रिश्ता नहीं लेकर आते थे कि ‘बरी’ में सब कुछ ‘बरा’ (जला) हुआ है। दूर-दूर तक ऊसर ही ऊसर ; हरियाली, पेड़, पौधा कुछ दिखता ही नहीं है । वहां एक धान के अलावा होता ही क्या है??

लेकिन जब से शारदा नहर का पानी गांव में आना कम हुआ है और वन विभाग ने ऊसर में सघन वृक्षारोपण कर दिया है, तब से बरी गांव की सूरत और सीरत दोनों बदल गई है। अब इस गांव में गेहूं , सरसों, अरहर, मूंग, आलू जैसी लगभग सभी फसले पैदा होने लगी हैं बशर्ते कि आवारा पशुओं के कहर से और कलमुहों की नजर से फसले बची रहें ।

हालांकि इस सब के बावजूद बरी गांव की पहचान अब भी ‘धान के कटोरे’ के रूप में ही है। इस गांव में धान की हर किस्म सफलतापूर्वक उगाई जाती है क्योंकि उसरही जमीन में पानी देर तक टिकता है और धान की फसल को पानी और खाद समय से मिलती रहे तो फिर बंपर पैदावार होना तय है। गांव में कई समरसेबल लग जाने और अब पर्याप्त समय के लिए बिजली आने से गांव के किसान केवल इंद्र देवता और शारदा नहर के भरोसे नहीं रह गए है।

इस बार भैया ने बेंड़ की रोपाई बिल्कुल समय से लगवा दी थी। रोपाई करवाने के एक हफ्ते के अंदर ही डीएपी और यूरिया का उचित मात्रा में छिड़काव भी कर दिया था। इसलिए धान के पौधों ने सही समय पर बियास (फैलना) लेना शुरू कर दिया था।

अब धान ‘गाला’ में आने लगे हैं । धान की पत्तियां और तने जो कुछ दिन पहले तक हल्के हरे रंग के थे अब गहरे हरे रंग के होने लगे हैं। भैया होशियार किसान हैं इसलिए तीन महीने की फसल होते ही उन्होंने जिंक का भी छिड़काव कर दिया है इसलिए इस बार धान की फसल में कीड़े मकोड़े भी नहीं लगे हैं और तना भी खूब मोटा हो गया है। पौधों का रंग भी कुछ करिया (काला) हो गया है।

जिस हार (क्षेत्र) और खेत मे अगहर धान लग गए थे , उनमें महीन हरी बालियां अब निकलने लगी हैं। जैसे-जैसे भादों गहराता (बीतता) जाएगा, इन हरी महीन बालियों में दूध उतरने लगेगा। भादों बीतते बीतते दूध सूखने लगेगा और बालियां मोटी और पुष्ट होने लगेंगी।

कुंआर (आश्विन) आते-आते बालियों का रंग बदलने लगेगा। धान के अंदर छुपा चावल कुछ बड़ा और टट्टस (मजबूत) होने लगेगा। तब जंगली जानवरों विशेषकर नीलगाय औऱ जंगली सूअरों से खेत को बचाना होगा। रात-रात भर जागकर निगरानी करनी होगी।

कुंआर बीतते-बीतते बालियों का हरा रंग, पीले- सुनहरे रंग में बदलने लगेगा। भैया ने पहले से ही सोच रखा है कि भगवान की कृपा से खेत का पीला सोना सही सलामत खलिहान पहुंचा तो इस धनतेरस को वह बच्चों के सो जाने के बाद चुपके से भउजी के बिल्कुल पास जाएंगे और एक जोड़ी सोने की बालियां उनके दोनों कानों में अपने हाथों से पहनाकर उनके खूबसूरत मुखड़े और सोने की बाली से निखरे कोमल कानों को देर तक निहारते रहेंगे।

आखिरकार सुनहरी ‘बालियां’ चाहे हरे-भरे धान के पौधों में लगे या गोरी चिट्टी भउजी के कान में सजे, सुंदर और मनमोहन तो लगती ही हैं।

(आशा विनय सिंह बैस)
ग्राम-बरी, बैसवारा वाले