‘हिन्दुत्व के ठीकेदारो! इतिहास के साथ ‘राजनीति’ मत करो

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय- 


हिन्दू-हिन्दुत्व के नाम पर सम्पूर्ण देश में ‘मात्र सत्ता की राजनीति’ करने के लिए संकुचित हिन्दूवादी राजनीतिक दल ‘भारतीय जनता पार्टी’ भारतीय समाज की पारस्परिक सौहार्द-भावना को छिन्न-भिन्न करने की दिशा में यत्नपूर्वक संलिप्त है। इस दल के ‘एक चपरासी से लेकर शीर्षस्थ पदाधिकारी तक’ ‘आधारहीन’ तर्क प्रस्तुत करते हुए, अपनी रुग्ण मनोवृत्ति का परिचय देते आ रहे हैं।
भारत के उपराष्ट्रपति वेंकय्या नायडू कहते हैं : इतिहास के पाठ्यक्रम से आक्रान्ताओं (मंगोल, सिथियन, मुसलिम,यवन-तुर्कादिक) को हटाकर, भारतीय राजाओं का ‘महिमा-मण्डन’ किया जाये।
इससे सुस्पष्ट हो जाता है कि उपराष्ट्रपति बन जाने के बाद भी वेंकय्या नायडू अभी तक ‘कट्टर हिन्दूवादी’ खोल से बाहर नहीं आ सके हैं।
वेंकय्या नायडू (तथाकथित हिन्दू) से मैं कतिपय प्रश्न करना चाहता हूँ :—
१- विषय के रूप में इतिहास पढ़ने-पढ़ाने का उद्देश्य क्या रहा है?
२- कंस, रावण, महिषासुर, हिरणकश्यिपु, हिरणाक्ष, कौरव आदिक आसुरी शक्तियों का नाम आप क्यों लेते हैं?
३- क्या अन्धकार के अभाव में ‘प्रकाश’ का अस्तित्व है?
४- मुहम्मद गोरी यदि पैदा नहीं हुआ रहता तो ‘पृथ्वीराज चौहान’ को कौन जानता?
५- अलाउद्दीन खिलजी नहीं होता तो ‘महारानी पद्मिनी’ के जौहरव्रत की प्रतिष्ठा कैसे होती?
६- अकबर नहीं होता तो महाराणा प्रताप की गौरव-गाथा कैसे लिखी जाती?
५- औरंगज़ेब यदि नहीं होता तो शिवाजी, गुरु तेगबहादुर, गुरु गोविन्द सिंह आदिक के शौर्य को कौन जानता?
६- ईस्ट इण्डिया कम्पनी यदि भारत नहीं आयी रहती तो भारत के क्रान्तिकारियों, सेनानियों की मारक वृत्ति कैसे प्रत्यक्ष होती?
वेंकय्या नायडू अब भूल जायें कि वे मात्र तथाकथित हिन्दुओं के उपराष्ट्रपति हैं बल्कि वे गणतन्त्र भारत के राष्ट्रपति हैं अत: उनका उक्त वक्तव्य नितान्त निन्दनीय है। वेंकय्या का पद विधिक है अत: देश में जो विधिक उच्छृंखलताएँ दिख रही हैं; विधि-व्यवस्था की शर्मनाक स्थिति है, उनके प्रति वे अपना ध्यान एकाग्र करें।
‘इतिहास काँग्रेस’ में ऐसे किसी भी व्यक्ति को सहभागिता करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए, जो किसी जाति और धर्म-विशेष का पोषक हो, चाहें वह कितना ही उच्चपदस्थ अधिकारी हो।
आज देश एक ऐसे राजनीतिक संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है, जहाँ उसके वास्तविक राष्ट्रवाद को मर्मान्तक आघात पहुँचाया जा रहा है। इतना ही नहीं, इसका दूरगामी परिणाम भी भारतीयता की अस्मिता को संकट में डाल सकता है।
अब समय आ चुका है कि सभी भारतीय संघटित होकर, भारतीय समाज को एक खाँचा-विशेष में देखनेवाले ‘राष्ट्रद्रोहियों’ का बलपूर्वक विरोध करें, अन्यथा उक्त मानसिकतावाले लोग भारत को ‘विस्फोटक’ स्थिति में लाने के लिए किसी भी मर्यादा का उल्लंघन कर सकते हैं।