ग़ज़ल : मेरे अन्तस से……

जगन्नाथ शुक्ल…✍ (इलाहाबाद)

आज  दर्पण  का  जीवन  लगा दाँव में;

सच दिखाया था क्यों झूठ की छाँव में?
आँखों  में  दर्द था, दिल में थी शिकन ;
पथ  में  काँटा  चुभा  जब  तेरे पाँव में।
पार करने को दरिया क्यों कसमें उठाई;
जब  छेद  ही  छेद  थे प्रेम की नाव में।
इतनी उल्फ़त सही और हिक़ारत मिली;
ज़िन्दगी भी बहा दी बहकते बहाव में।
दर्द   बढ़ता  गया  जख़्म  सड़ता  गया;
पीर  ही  पीर  है   इस  मिले  घाव  में।
ये  दुपट्टे  तो  केवल  लहर  हैं  नदी के;
जिनकी  रूचि  ही  नहीं  है ठहराव में।
काँच की साँच से मत डरो तुम ‘जगन’
टूट  जायेगा  भ्रम  जो  बना  भाव में।