क्या केन्द्र-शासन मात्र एक प्रयोगशाला बनकर रह गया है?

विद्वान विचारक डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डे जी ने सोशलमीडिया के मंच पर सवाल पूछा कि क्या केन्द्र-शासन मात्र एक प्रयोगशाला बनकर रह गया है? लोगों ने अपना – अपना पक्ष रखा । कुछ लोगों के विचार इस तरह हैं-

महेन्द्र प्रकाशी जी कहते हैं कि बेशक, काम तो बहुत हो रहे हैं। जनहित की योजनाओं के बजट में कटौती हो रही है। मंदिर-निर्माण के नाम पर एक बार फिर हिन्दू भावनाओं को भड़काकर मत बटोरने के लिए बिसात बिछाई जाने लगी है। गोरक्षा की ठीकेदारी तो चल ही रही है। नोटबंदी और जी एस टी के द्वारा बचा-खुचा रोज़गार भी छीन लिया गया है। दंभ में वृद्धधि हो रही है। सस्ते कच्चे तेल के बावजूद भी ईंधन की क़ीमत ऊंची बनाए रखने की कोशिश सफल हो गयी है। शिक्षा का व्यवसायीकरण जोरों पर है ही। सरकारी उपक्रमों की बोली शुरू होने को है। सरकारी वेतनमान लगातार बढ़ रहे हैं। ग़रीब के लिए क़ब्रगाहों पर काम चालू है। इसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ।

मधुरेन्द्र पाण्डेय जी का कहना है कि जो भी हो रहा है , क्या पहले भी किया गया है, मैं एक प्रखर सनातनी की दृष्टि से देखते हुए तो मोदी जी को आशाजनक कह ही सकता हूं,सब कुछ तो विस्तार से कहना यहां न उचित है न ही संभव है पर सनातनीयों से कूटनीतिक दृष्टि से विचार करने की अपेक्षा रखता हूं चाहे वो राष्ट्र का विषय हो या सनातन धर्म का या फिर अंतरराष्ट्रीय जगत और भारतवर्ष की स्थिति का, ऐसे अनेक विषयों पर समग्रता के साथ चिंतन कर के फिर निर्णय लेने की आवश्यकता है। मैं लोकतंत्र नामक निकृष्ट व्यवस्था में,जहां सभी बुरे ही हैं वहां सबसे कम बुरे को ही चुनना पसंद करुंगा क्योंकि मेरी प्राथमिकताएं, पैट्रोल, महंगाई, टमाटर, तेल, नमक, जैसे विषयों जिनमें जीएसटी, नोटबंदी आदि विषयों को भी जोड़ सकते हैं, इन्हें छोड़कर अन्य विषय हैं जैसे राष्ट्र, सनातन धर्म, सेना, इस्लामी आतंकवाद, घुसपैठिये आदि विषय, अंतरराष्ट्रीय विषय तो हैं ही, यदि मुझे थोड़ी हानि भी हो रही है तो भी विरोधियों के पराभव के लिये मैं इस सरकार को समर्थन दूंगा क्योंकि एक नैष्ठिक ब्राह्मणपुत्र के लिये धर्म, राष्ट्र, गौ, सभ्यता, संस्कृति, स्वाभिमान अधिक महत्वपूर्ण हैं । आप विधर्मियों, वामपंथियों, सेकुलरों, नवबौद्धों, दलितों, खालिस्तानियों आदि को देखिये, ये अपनी सरकार रहने एवं उनके सभी दुष्ट कर्मों के करने पर भी विरोध नहीं करते, इसी प्रकार उनके पराभव के लिये हमें भी सब बुरों में सबसे कम बुरे को चुनना ही पड़ेगा, यही आज की नीति होनी चाहिए। मेरी प्राथमिकता अस्तित्व और आत्मसम्मान तथा राष्ट्र की अखंडता है, कुछ समय तो कमी में भी रहा जा सकता है, वैसे मूलभूत आवश्यकताएं तो पूरी हो ही रही हैं सरकार द्वारा, इतने दुर्दिन भी नहीं आए,पूर्ववर्ती सरकारों से तो बहुत अच्छी है।

बहन अनीता शर्मा कहती हैंकि एक के किये कुछ नहीं होगा। स्वार्थ जनता में भी भरा है। प्रकृति ही संतुलन बनाती है। भौतिकता जब चरम पर पहुँची तो केदारनाथ में सब बह गया । प्रलय, भूकंप, सुनामी इस बात के प्रत्यक्ष गवाह हैं । जिस शासन में गंदगी और स्वार्थ चरम पर पहुँचता है ऐसी व्यवस्था को समय उखाड़ फेंकता है ।

जगन्नाथ शुक्ल का कहना है कि प्रयोग ही प्रयोग हो रहे हैं निष्कर्ष नहीं मिल पा रहे हैं।