बहरों को सुनाने के लिए धमाका किया है : भगत सिंह

संसद भवन, नई दिल्ली.. लोकसभा का हॉल।

आज का पार्लियामेंट हाउस तब सेंट्रल असेम्बली कहा जाता था। 8 अप्रेल 1929 को सभा की कार्यवाही शुरू हुई और ऊपर से एक बम आकर गिरा। जोर का धमाका, सब धुआं धुंआ.. अफरातफरी मच गई। सदस्य इधर उधर भागे।

ऊपर, दर्शक बालकनी से बम फेंका गया था। अब वहां से पर्चे गिरने लगे। फेंकने वाले दो युवक थे। मजे से खड़े थे, नारे लगा रहे थे। उन्होंने भागने की कोशिश नही की, उनके बम से कोई मरा भी नही था।कोई नुकसान नही हुआ, बस एक खम्भे का ग्रेनाइट चटक गया था।

कुछ सुरक्षा कर्मियों ने नारेबाजों को पकड़ लिया। एक युवक के पास से पिस्टल बरामद हुई। उसका नाम- “भगत सिंह”।

बयान-“बहरों को सुनाने के लिए धमाका किया है”.

मुकदमा शुरू हुआ। लीगली, बम से कोई मरा नही था, मगर बम फटा तो था, सो एक्सप्लोजीव एक्ट लगा। भागने की कोशिश नही की, पर्चे फेंके थे जिसमें सरकार की आलोचना थी, सो राजद्रोह लगा। इन धाराओं में वे शायद दस पन्द्रह साल जेल काटकर छूट जाते, जो बटुकेश्वर दत्त के साथ हुआ भी। लेकिन भगत का मामला फंस गया। पुलिस को खुफिया खबर मिली कि उसके पास जो पिस्टल बरामद हुई थी, दो साल पहले लाहौर में उसी पिस्टल से एक पुलिस अफसर का मर्डर हुआ था। मकतूल का नाम सांडर्स था।

तफ्तीश हुई, तो गवाह मिले। सांडर्स मर्डर में, टीम के दर्जन भर दूसरे साथी पकड़े गए। सीधे इन्वॉल्व भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव थापर पर 302 लगा। लाहौर के प्रोफेसर का लड़का हंसराज वोहरा, पुलिस का वायदा माफ गवाह बन गया।

भगत ने कोई झिझक नही दिखाई। कहा कि उसने लाला लाजपतराय की मौत का बदला लिया है। यह अखबारों में बड़ी सनसनी थी।भगत ने वकील नही लिया। जबरजस्त स्पीच देते। रोज उनके आग उगलते, सरकार को आड़े हाथों लेते बयान सुर्खियाँ बनते। मुकदमे की मीडिया कवरेज उसे हीरो बना दिया, पॉपुलरिटी आसमान छूने लगी ।

ये देख वाइसराय इर्विन ने प्रेस की एंट्री बन्द की। एक स्पेशल ट्रिब्यूनल बनाया, बन्द कमरे में फ़टाफ़ट फैसला हुआ। जेरे दफा 302 में मौत की सजा-

हैंग टिल डेथ।

सजा देना कोर्ट का काम होता है, मगर इसे क्रियानवयित करना सरकार का, लेकिन वाइसराय इर्विन की हालत सांप छछुंदर सी थी।

गांधी का सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हो चुका था। जगह जगह जनता नमक बना रही थी, जनसमूह उमड़ रहा था। साइमन कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर भारतीयों को प्रोविंशियल गवर्नेस में हिस्सेदारी का फार्मूला निकालने के आदेश थे, पर कांग्रेस कई मुद्दों परअड़ी थी। यह सब कम था क्या, कि ये नया सरदर्द आ गया था।

भगतसिंह, यूथ आइकन बन चुके थे। अब कांग्रेस भी फांसी को फिलहाल टालने का दबाव बना रही थी। नेहरू का स्टेटमेंट था- ” अगर भगतसिंह की लाश हमारे बीच रखी होगी, तो समझौता कैसे होगा”। गांधी हर बैठक में मुद्दा उठा रहे थे। फांसी करने का ऑर्डर इर्विन को देना था। गांधी का आग्रह था आदेश न दिया जाए।

सरकार का कानूनी अधिकार होता है, वो सजा को कम्यूट कर दे, छोड़ दे या पेंशन बांध दे। लेकिन,माफी का आवेदन आये तो सही।भगत सिंह आवेदन करने के लिए तैयार नही थे, परिवार को भी आवेदन देने से सख्त मना कर दिया।

वाइसराय की मुसीबत हल करने को गांधी ने “आसफ अली मिशन” भेजा। यह लिखवाने के लिए की “भगतसिंह फांसी न दिए जाने पर क्रांतिकारी गतिविधि छोड़ देंगे और आजादी के लिए, अहिंसक शांतिपूर्ण तरीको का पालन करेंगे”।

आसफ अली कांग्रेस लीडर और उस दौर के सबसे नामचीन क्रिमिनल लॉयर थे। मुकदमे के दौरान कांग्रेस ने उन्हें राजगुरु और सुखदेव की पैरवी का जिम्मा दिया था। भगत ने वकील नही लिया था, मगर आसफ अली से सलाह करते रहे थे। ऐसे में गांधी को उम्मीद थी कि आसफ अली क्लीमेंसी का लेटर निकलवाने मे सफल होंगे। भगत मान गये। पत्र लिख दिया।

“माफीनामा” इर्विन के पास पहुंचा। उन्होंने खोला, पढ़ा, और सर पीट लिया। लिखा था -“हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध सिपाही हैं। इसलिए कृपया हमें मामूली अपराधियो की तरह फांसी मत दें। हमें युध्द अपराधी की तरह गोली से उड़ाया जाए।”

ये विचित्र माफ़ीनामा भी खबर बना और भगत का लेजेंड हिंदुस्तान के सर चढ़कर बोलने लगा।

इर्विन की मुसीबतें बढ़ रही थी। सिविल ब्यूरोक्रेसी बेचैन थी, उनका एक अफसर सड़क पर मार दिया गया था। तुरन्त फांसी देकर एक नजीर न बनाई गई.. तो देश भर में अफसरों के जान की कोई कीमत न होगी। पंजाब के सिविल सर्वेंट्स एसोसिएशन ने फांसी रोकने के खिलाफ हड़ताल और सामूहिक इस्तीफे की धमकी दे दी।

उधर जेल में बेहतर ट्रीटमेंट के लिए भूख हड़ताल शुरू कर दी। 63 दिन भूखे रहने पर यतीन्द्र नाथ दास नाम के एक हड़ताली की मौत हो गयी। लाश उनके घर कलकत्ता पहुंची, तो बंगाल उद्वेलित हो गया। भगतसिंह भी फिर जनमानस पर छा गए।

23 मार्च 1931 से कांग्रेस का कराची अधिवेशन शुरू होना था। रवाना होने से पहले गांधी ने इर्विन को फिर चिट्ठी लिखी। भगत को फांसी देने से देश मे उठने वाली कठिनाइयों का हवाला दिया। भगत की युवा उम्र और उस उम्र में जोशीली भावनाओ का हवाला दिया।

पत्र लिखते समय गांधी को नही मालूम था, की लाहौर की जेल में फांसी हो चुकी है। भगत, देशप्रेम और शहादत की ऊंचाइयों पर सबसे बड़ा सितारा बन चुके थे। सरकार ने गोपनीयता इतनी बरती, कि मृत शरीर तक परिवार को सुपुर्द न किया, जलाकर राख बहा दी गयी।

कराची स्टेशन पर गांधी के उतरते तक, 25 मार्च को खबर आम हो चुकी थी। अधिवेशन में गांधी का स्वागत काले झंडों, काले कपड़ो से बने फूलों से हुआ। गांधी गो बैक के नारे लगे। भगत को न बचा पाने का दोष लगा।

गांधीजी ने विरोध को गहरी व्यथा और भारी विक्षोभ का प्रदर्शन बताया । उन्होंने कहा कि भगत सिंह की बहादुरी के लिए हमारे मन में सम्मान उभरता है। लेकिन हम आत्मबलिदान के ऐसे रास्ते के हिमायती हैं जिससे दूसरों को नुकसान ना पहुंचे ।

वह ‘स्वराज’ में लिखते हैं मौत की सजा नहीं दी जानी चाहिए भगत सिंह और उनके साथियों से बात करने का मौका मिला होता तो कहता कि उनका चुना हुआ रास्ता गलत और असफल है। ईश्वर को साक्षी मानकर यह मेरा दृढ़ मत है कि हिंसा के रास्ते चलकर स्वराज नहीं मिल सकता।

मैं जितने तरीकों से वायसराय को समझा सकता था मैंने समझाने की कोशिश की । मेरे पास जितनी शक्ति थी इस्तेमाल किया। 23 तारीख की सुबह में वायसराय को पत्र लिखा जिसमें मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेल दी। भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे लेकिन हिंसा को धर्म भी नहीं मानते थे। इन वीरों ने मौत के डर को भी जीत लिया उनकी वीरता को नमन है। लेकिन उनके कृत्यों का अनुकरण नहीं किया जा सकता।

आज भी गांधी पर कालिख उछाली जाती है। माफी मांगने को स्ट्रेटजी बताने वाले, गांधी को बदनाम करने के लिए भगत का इस्तेमाल करते हैं। प्रकारांतर में गोडसे को जस्टिफाई करते हैं। माफ़ीवीर की तस्वीर से अपवित्र उस सदन में बहुमत और ध्वनिमत का खेल चलता है, जिसके किसी कोने में भगतसिंह की निशानी खुदी हुई है।

सोचता हूँ, की विधायी कामकाज और हंसी ठट्ठों के बीच क्या कभी कोई सांसद उस टूटे हुए ग्रेनाइट से उभरती भगतसिंह की आवाज को सुनता भी है…?

यूँ खड़ा मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?

दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज.

दूर रह पाए जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजुए क़ातिल में है ।

(मनीष सिंह)