कश्मीर समस्या – इतिहास और भविष्य

सुधान्शु बाजपेयी-


कश्मीर एक बार फिर तड़प रहा है, अपनी नियति खुद तय करने के लिए, मगर उसकी पीड़ा, उसकी आह सुनने वाला कोई नहीं । कश्मीर पर ऐसे बात की जा रही है जैसे कश्मीर पर उसमें सदियों से रहने वाले कश्मीरियों का कोई हक नहीं, वो कहीं बाहर से आ गये हों । आप एकबारगी सोचिये कि 75 की इमर्जेंसी अगर अब तक जारी रहती तो आप क्या करते ?  इस बार के विद्रोह में बाहरी नहीं कश्मीर के आम लोग सड़को पर हैं, और अगर कश्मीर में यह आग अभी तक जिंदा है तो इसकी मुख्य वजह है वहाँ की बहुसंख्यक आबादी का इस आंदोलन से जुड़ा रहना, उन्हें आतंकवादी कहकर खारिज कर देने से अच्छा होता उनके दर्द, उनकी भावनाओं को समझा जाता । कश्मीर का यही दुर्भाग्य है कि उसे एक सैरगाह से ज्यादा समझा ही नहीं गया, न कश्मीरियों को कभी अपना माना गया ।

कश्मीर पर बात करने से पहले कश्मीर की उन विषेष परिस्थतियों पर जरूर बात करनी होगी जिन्होनें कश्मीर के उदय के एक सुन्दर सपने का अन्त कर दिया । कश्मीर का ख्वाब आजाद भारत के ख्वाब जितना ही पुराना है, परन्तु पाकिस्तान के उदय ने इस सपने की नियति ही बदल दी । न के राजा हरि सिंह उसे पूरब का स्विट्जरलैण्ड बनाना चाहते थे, तो कश्मीर की जनता कश्मीरियत से भरपूर आजाद प्यारा सा कश्मीर, जहाँ लोकतंत्र हो, राजा की क्रूरता और मनमानी न हो और यह हिंदू -मुस्लिम दोनों चाहते थे । 80 प्रतिषत मुस्लिम आबादी के बावजूद वहां तब हिंदू मुस्लिम जैसा कुछ न था, चूंकि अधिकांश जनता ने स्वेच्छा से सूफी मत के प्रभाव में इस्लाम कुबुल किया था। जिससे एकदूसरे समुदायों में खानपान, रहन-सहन, शादी-विवाह सब होता था, दरअसल अन्तःकरण से सब एक ही समुदाय थे ।

22 अक्टूबर 1947 को कबायली आक्रमण के खिलाफ राजा हरि सिंह ने जब भारत सरकार से सहायता मॉगी, तो नेहरू जी ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया । 27 अक्टूबर को लार्ड माउंटबेटेन ने हरिसिंह को कश्मीर में शान्ति-व्यवस्था बहाली हो जाने पर राज्य की जनता की इच्छा के अनुसार आत्मनिर्णय का आश्वासन दिया और यही तत्कालीन सरकार की भी राय थी । यह बात सीधे तौर पर आजादी के आंदोलन और लोकतंत्र की आवाज थी जिसमें जनता सर्वोपरि थी । 17 अक्टूबर 1947 में को संविधान सभा में अनुच्छेद 306-ए के रूप में कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले इस प्रावधान को पेश किया गया जो कि बाद में भारत के संविधान में अनुच्छेद 370 के रूप में दर्ज हुआ । जिसका महावीर त्यागी और मौलाना मोहानी ने अन्य रियासतों को भी ऐसी ही स्वायत्तता दिये जाने के तर्क से विरोध किया जबकि कश्मीर की विशेष परिस्थतियों को देखते हुये सरदार पटेल और श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं का भी इस प्रावधान को समर्थन प्राप्त था ।

राजशाही के विलोप के बाद आयी शेख अब्दुल्ला सरकार लगातार कश्मीर को अधिक स्वायत्तता और प्रभुता को बरकरार रखने के लिए संघर्ष करती रही । परन्तु जम्मू और भारत में फैली सांप्रदायिकता से नाराज होकर जब शेख अब्दुल्ला ने 7 अगस्त 1953  को भारत के साथ संबंधों के बारे में पुर्नविचार की बात कही तो नेहरू जी को कश्मीर हाथ से जाता हुआ लगा । नतीजतन शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करवा लिया गया । यही पहली भूल थी जिसने कश्मीर को अपना होने से पहले ही पराया कर दिया और फिर हम गलतियों पर गलती करते गये । यहीं से वहां की जनता के भरोसे की जो कड़ी टूटी वो आज तक न जोड़ी जा सकी । कश्मीर के लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया ।

दस साल की बख्शी गुलाम मोहम्मद की सरकार के बाद जब नेहरू को लगा कि शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी से सिवाय जनता में असंतोष और अलगाव के कुछ हासिल न हुआ तो अप्रैल 1964 को उन्हें रिहा कर दिया गया ।

शेख अब्दुल्ला ने भारत पाकिस्तान कश्मीर तीनों के सहयोग से समाधान पर पहुँचने का प्रयास शुरू किया तो दुर्भाग्यवश नेहरु जी की मृत्यु के साथ ही इस प्रयास की भी मृत्यु हो गई । 1953 की ही तरह कश्मीर में चुनाव में धांधली, अपहरण, उत्कोच और दमन के बल पर पुनः केन्द्र की कठपुतली सरकारें आती जाती रही, परन्तु 1977 में केन्द्र में मोरारजी देसाई की सरकार के साथ ही जम्मू कश्मीर में पहला स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हुआ । शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस ने भारी बहुमत से विजया पायी, स्थिति कुछ हद तक सामान्य रही परन्तु उनमें अब कश्मीर समस्या के स्थायी समाधान के प्रयास कि सार्मथ्य शेष न रही । 1982 में उनकी मृत्यु हो गयी ।

उसके बाद उनके बेटे फारुक अब्दुल्ला 1983 के चुनाव जीते मगर 1984 को अलोकतांत्रिक ढंग से सरकार को बर्खास्त कर दिया गया, तब तक वह कश्मीर की लोकतांत्रिक आकांक्षाओ के केंद्र थे, उन पर कश्मीरियत को बचाने की शेख अब्दुल्ला की विरासत को संभालने की जिम्मेदारी थी, परंतु दो साल बाद ही कांग्रेस से समझौता करके वह फिर से मु़ख्यमंत्री बने, मगर कश्मीरियत के आंदोलन को इससे बड़ा झटका लगा, लोगों ने बैलेट के बजाय बुलेट पर भरोसा जताना शुरू कर दिया । तबसे लेकर अब तक केवल केन्द्र की कठपुतली सरकारें ही बनती रही, जनमत संग्रह का प्रश्न नेपथ्य में धकेल दिया गया । कश्मीरियों को नहीं बल्कि कश्मीर (भूभाग) को बंदूक के बल पर भारत में रखने की होड़ चलती रही ।

अब बात कश्मीर के भविष्य की कश्मीर के पास तीन ही विकल्प थे स्वतंत्र अस्तित्व, भारत में मिल जाए या तो पाकिस्तान में शामिल हो जाए । परन्तु पाकिस्तान में लोकतंत्र की असफलता के चलते कभी भी यह माँग आम कश्मीरियों द्वारा बहुमत से स्वीकार न की जा सकी, सिवाय अपवाद प्रतिक्रियावादी तत्वों के । वर्तमान अलगावादी आंदोलन भी अपनी लड़ाई भारतीयों से नहीं भारत सरकार से मानते हैं तभी पिछले दौर में पर्यटन बहाल रखने की ही शर्तों पर ही अमरनाथ यात्रा पुनः शुरू की गयी । इस बार भी उन्होंनें अमरनाथ यात्रियों को कहीं भी सीधे निशाना नहीं बनाया। रही बात आजाद कश्मीर की तो उसकी विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों के चलते यह संभव नहीं, भारत नहीं भी तो भी पाकिस्तान उसे अपना हिस्सा बनाना चाहेगा । तीसरा विकल्प भारत से साथ रहने का था परन्तु यह कश्मीर की जनता की शर्तों पर होना चाहिए था, परन्तु दुर्भाग्यवश भारतीय राज्य ने कभी भी कश्मीरियों की भावनाओं और स्वायत्तता का सम्मान नहीं किया। कश्मीर को सम्पूर्ण स्वायत्तता  की दरकार है, प्रेम सहयोग और विश्वास की जरूरत है, कश्मीरियों की रोटी और रोजगार के रास्ते खोलकर अभी भी इस्लामी कट्टरपंथियों के मंसूबों से उन्हें अलग किया जा सकता है। भारत चाहे तो कश्मीर भी दूसरा हांगकांग हो सकता है ।