गुरु पूर्णिमा पर श्रद्धेय श्री अवधेश बहादुर सिंह को नमन

बैसवारा सदियों से कलम और तलवार का धनी क्षेत्र रहा है। महावीर प्रसाद द्विवेदी, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जैसे कलमकार और राजा राव रामबख्श सिंह तथा राणा बेनी माधव जैसे वीर योद्धा बैसवारा क्षेत्र की आन-बान-शान रहे हैं।

बैसवारे की वीरप्रसूता भूमि और राणा बेनी माधव की वीरता को नमन करने के लिए किसी ने एक गीत लिखा। जिसका मुखड़ा है-
“एक बार नमन करो, वीर बैसवारा है।
एक बार नमन करो, राणा का दुधारा है।।”

अवधेश बहादुर जी

यह गीत जब मैंने पहली बार सुना, तब शायद मैं चौथी या पांचवी कक्षा में पढ़ता था। मेरे विद्यालय प्राथमिक पाठशाला बरी के प्रधानाध्यापक श्रद्धेय श्री अवधेश बहादुर सिंह (एकौनी निवासी) सौम्य, सरल व्यक्तित्व के स्वामी थे। कुर्ता- धोती उनका पहनावा था जो उनके गोरे रंग और निकले हुए पेट (तोंद) पर खूब फबती थी। चूंकि मुझे बचपन से ही तुकबंदी करने की आदत थी। अतः मैंने गुरुजी के तोंद पर एक कविता बना डाली। जिसका मुखड़ा कुछ यूं था-
“एक बार नमन करो, वीर बैसवारा है।
एक बार नमन करो, अवधेश का तोंदाड़ा है। “
इस कविता का मैं अक्सर अपने सहपाठियों के बीच सस्वर पाठ किया करता था और सब खूब हँसते थे, मजे लेते थे। एक दिन मेरा कविता पाठ चल ही रहा था कि गुरुजी आ गए। उनको देखते ही मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। उन्होंने सायकिल से उतरते ही पूछा कि तुम लोग किस बात पर इतना ‘ही ही -हो हो’ कर रहे हो? किसी दुष्ट सहपाठी ने चुगली कर दी कि गुरुजी ‘मुन्ना’ कविता सुना रहे थे। अब चूंकि गुरुजी स्वयं कवि थे, अतः उन्होंने मुझे कविता पुनः सुनाने का आदेश दे दिया। अब मैं क्या करूँ? मुझे काटो तो खून नहीं। मैं बड़ी देर तक यंत्रवत खड़ा रहा।

गुरुजी ने पुनः आदेश दिया-” कविता सुनाओ या दंड भुगतो।” मैंने कहा,” गुरुजी दंड ही दे दो।” वे मुझे पुत्रवत स्नेह करते थे। अतः मुस्कराए और बोले- “पहले कविता सुनाओ, फिर मैं निर्णय लूंगा कि तुम्हें दंड देना है या पुरस्कार।” खैर भगवान का नाम लेकर, मैंने कविता शुरू की-
“एक बार नमन करो, वीर बैसवारा है।
एक बार नमन करो, राणा का दुधारा है।”

गुरुजी अनुभवी व्यक्ति थे। तुरंत भांप गए कि मैं सयाना बनने की कोशिश कर रहा हूँ। बोले- “यह वह कविता तो नहीं थी, जो तुम सुना रहे थे। और अगर यही थी, तो इसमें हंसने की क्या बात थी? वह सुनाओ, जो मेरे आने से पहले सुना रहे थे।” गुरुजी ने मुझे लगभग डपटते हुए कहा।

मरता क्या न करता, मैंने डरते-डरते शुरू किया-
“एक बार नमन करो, वीर बैसवारा है।
एक बार नमन करो, आआवववधेधेशशस ककक्का तोंदाड़ा है।”

गुरुजी कविता सुनकर थोड़ी देर के लिए मौन हो गए। मैं सजायाफ्ता कैदी की तरह, मुंह लटकाए, हाथ बांधे खड़ा था कि अब फांसी हुई कि तब हुई। गुरुजी का वह क्षण भर का मौन, मेरे लिए सदियों सा गुजरा।

थोड़ी देर बाद, गुरुजी ने पास बुलाया। मुस्कराए और पीठ थपथपाते हुए बोले – “शाबाश बेटा। बहुत खूब।मजेदार तुकबंदी है। जाओ, मौज करो।”

लेकिन मेरी एक बात गांठ बांध लो। तुकबंदी तक तो ठीक है, लेकिन किसी गुरु का कभी अपमान न करना।

—विनय सिंह बैस