‘ डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला ‘ ‘वर्ण’ और ‘अक्षर’ के मध्य अन्तर को समझिए

‘वर्णमाला’ के अन्तर्गत हमारे अधिकतर अध्यापक- वृन्द ‘वर्ण’ और ‘अक्षर’ की बात करते हैं। पुस्तकों में इस आशय की परिभाषा विद्यार्थियों को भ्रमित करती है :– वर्ण को ‘अक्षर’ भी कहते हैं। ऐसे में ही, एक समीचीन प्रश्न उत्पन्न होता है :– फिर क्, च्, त्, म् ल् इत्यादिक को ‘अक्षर’ और ‘क, च, त, म, ल इत्यादिक को ‘वर्ण’ क्यों कहते हैं? यहाँ विभेद क्यों?

यहाँ तक कि ‘वर्ण’ और ‘अक्षर’ को एक ही मान लिया गया है; परन्तु हम जब वर्ण और अक्षर की उत्पत्ति पर विचार करते हैं तब यह ज्ञात होता है कि दोनों पृथक्-पृथक् हैं और एक-दूसरे में आत्मस्थ भी; अर्थात् एक-दूसरे के पूरक हैं।
कैसे?

आइए! इसे समझते हैं।
पहले हम वर्ण की परिभाषा को समझें :—
वर्ण— वर्ण वह मूल ध्वनि है, जो खण्डित नहीं होता।
उदाहरण के लिए— ‘कमल’– क म ल को समझते हैं। ये तीनों वर्ण हैं। अब हम ‘कमल’ को तोड़ते हैं— ‘क्+अ+म्+अ+ल्+अ’— ये अक्षर कहलाते हैं। ऐसा इसलिए कि इन छ: में से किसी का भी विघटन हो ही नहीं सकता; क्षरण नहीं हो सकता। इसे इस तरह से समझें :— हल् क (क्) अपंग अक्षर है। यह अपना सब कुछ क्षरण करा चुका है; अब इसके पास क्षरण कराने के लिए कुछ है ही नहीं; इसीलिए इसे ‘अक्षर’ कहते हैं। यहाँ सभी स्वर भी ‘अक्षर’ हैं; क्योंकि उनका भी क्षरण नहीं होता।
इसी सन्दर्भ में ‘अक्षर’ की परिभाषा को समझना उपयोगी हो जाता है :—

अक्षर— भाषा की छोटी-सी-छोटी ध्वनि को ‘अक्षर’ कहते हैं। इसे छोटी-सी-छोटी ध्वनि इसलिए कहते हैं; क्योंकि यह क्षरणशील नहीं होती।

इन दोनों के मध्य अन्तर को पुन: समझें :–
हम ‘क’ व्यंजन की रचना-प्रक्रिया को समझें :— क्+अ =क। इसमें ‘क’ वर्ण है; क्योंकि यह मूल ध्वनि है। आदि में दिख रहे अपूर्ण क/अपंग क अथवा हल् क (‘क्’) का हम उच्चारण भी नहीं कर सकते और न इसमें किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न कर इसे क्षरणशील बना सकते हैं।
इस प्रकार यह ‘क्’ ‘अक्षर’ की कोटि के अन्तर्गत रेखांकित होता है।