कोहबर की शर्त से नदिया के पार होते हुए हम आपके हैं कौन तक

फिल्में बहुत कम देखता हूँ लेकिन ‘हम आपके हैं कौन’ फ़िल्म दो बार देखी क्योंकि इसकी कहानी दिल को छू जाती है। ‘नदिया के पार’ कई बार देखी क्योंकि कथानक के साथ-साथ पात्र, बैकग्राउंड, संगीत, बोली-भाषा सब कुछ अपना सा लगता है। पँड़ाइन आजी की बोली तो बिल्कुल वैसी है जैसे हमारे बैसवारा की ही कोई आजी-काकी बोल रही हों ।

यह दोनों ही फिल्में केशव प्रसाद मिश्र के कालजयी उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर आधारित है। इसलिए उसे पढ़ने का निश्चय किया।

गुंजा की दीदी रूपा के सीढ़ी से गिरकर मृत्यु होने तक उपन्यास और दोनों फिल्मों की कहानी लगभग एक सी है। फ़िल्म में थोड़ी गलतफहमी , थोड़े भावुक दृश्यों के बाद चंदन को गुंजा मिल जाती है। बैद जी को सुयोग्य दामाद मिल जाता है। मुन्ने को गुंजा में मौसी, चाची और मां एक साथ मिल जाती है। अनिरुद्ध और काका को भोजन पकाकर देने वाली गृहिणी मिल जाती है। मतलब सब कुछ अच्छा हो जाता है, परफेक्ट हैप्पी एंडिंग।

लेकिन उपन्यास यहां पर खत्म नहीं होता है। चंदन के काका जो पहले खाने-पीने के शौकीन थे, थोड़े रंगीले भी थे। गांव की महिलाओं विशेषकर नाउनी (ठकुराइन) से चुहलबाजी कर लेते थे, उनका स्वभाव बहुत गंभीर हो जाता है, उनका चरित्र बहुत ऊंचा उठ जाता है। वह अपने गांव के लिए, गांव की साझी जमीन के लिए हल के आगे लेट कर अपना प्राणोत्सर्ग कर देते हैं। वह साधारण मनुष्य से बहुत ऊपर उठकर गांव के देवता बन जाते हैं।

इस एक सकारात्मक पहलू के अलावा इसके आगे उपन्यास में बस घुटन है, दर्द है, पीड़ा है, संत्रास है, बेचैनी है। उपन्यास में गुंजा की शादी अनिरुद्ध से हो जाती है। चंदन बड़े भाई के लिहाज में कुछ बोल नहीं पाता और गुंजा यह सोचकर चुप्पी साध जाती है कि जब चंदन लड़का होकर अपने मन की बात नहीं कह पाया तो वह लड़की होकर भला कैसे कहे।

परिणामस्वरूप चंदन ने जिस गुंजा को अपनी प्रेमिका माना और समझा, वही उस गुंजा का देवर बन जाता है। यह दोनों के लिए बड़ी विकट, भारी असमंजस की स्थिति है। गुंजा के लिए तो एकबारगी फिर भी ठीक कि दोनों रिश्तों में वह ‘चंदन’ को ‘चंदन’ बोल सकती है। लेकिन चंदन अब अपनी ‘भौजी’ को ‘गुंजा’ कैसे कहे?

चंदन पर इस घटना के बाद ताउम्र न सिर्फ जहरीले सांप लिपटे रहते हैं बल्कि उसे डसते भी रहते हैं। जहर भी ऐसा कि वह मरता नहीं है लेकिन जी तो बिल्कुल नहीं पाता है। बिना मां-बाप के चंदन के जीवन में जो कुछ समय के लिए भौजाई का स्नेह, दुलार और गुंजा का प्रेम मिला , वही उसके जीवन का एक बूंद अमृत है बाकी उसे जीवन भर सिर्फ हलाहल विष ही मिला।

उसने बचपन मे अपने माँ-बाप खोये, जवानी में भाभी खोई, गुंजा का प्यार खोया, फिर काका को खोया। जिस बड़े भाई को अपने और गुंजा के प्रति निश्चिंत करने के लिए चंदन गांव की ही एक लड़की से प्रेम करने लगता है या कहिए प्रेम करने का नाटक करने लगता है। फिर उससे शारीरिक संबंध भी बन जाते हैं। इस तरह वह अपना चरित्र भी खो बैठता है।

लेकिन क्रूर नियति को इतने भर से संतोष नहीं हुआ। वह शायद चंदन के जीवन से शीतलता की एक-एक बूंद निचोड़ लेना चाहती थी। उसके भाग्य के प्याले में सिर्फ पीड़ा, वेदना और त्रास का जहर भर देना चाहती थी।

तभी तो कुछ समय पश्चात गांव में चेचक का प्रकोप होता है। शुरुआत चंदन की तथाकथित प्रेमिका से होती है। उसकी एक आंख चली जाती है, वह अत्यंत कुरूप हो जाती है । गांव के कई लोगों की चेचक बलि ले लेता है। यहां तक कि अनिरुद्ध जिसे चंदन ने बड़े भाई से अधिक पिता माना, जिसके लिहाज में वह अपने प्रेम की सहर्ष बलि दे देता है, वह भी चेचक की भेंट चढ़ जाते हैं।

कुंवारी गुंजा, सधवा गुंजा और अब विधवा गुंजा। चंदन ने कुछ ही समय में गुंजा के तीनों रूप देख लिए। लेकिन यह उसकी वेदना का अंत नहीं था। विधाता चंदन की जीवन गाथा लिखते समय शायद अपने सबसे क्रूर रूप में थे। इसीलिए गज भर सुख की समतल, उपजाऊ जमीन के बाद, दुःखों के सारे निर्जन पहाड़, रेगिस्तान की सारी बंजर जमीन उसने चंदन के नाम लिख दी। उसके दामन में सिर्फ एक गुलाब का फूल और करोड़ों नागफनी के कांटे डाल दिए। तभी तो कुछ समय पश्चात विधवा गुंजा भी चंदन की आंखों के सामने तिल-तिल कर अपने प्राण त्याग देती है।

‘कोहबर की शर्त’ की पूरी कहानी इतनी मार्मिक है कि एक बार पूरा पढ़ने के बाद पत्थरदिल मनुष्य भी पिघल जाता है। कथानक इतना मर्मान्तक है कि इसकी टीस जल्दी न जाएगी। इस दुखांत उपन्यास के विरेचन का प्रभाव इतना तीव्र और सांद्र है कि मन की सारी कलुषता धुल जाती है। कुछ समय के लिए ही सही मनुष्य निष्पाप हो जाता है।

(आशा विनय सिंह बैस)