आरक्षण और पदोन्नति-आरक्षण का औचित्य?

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

राष्ट्र की अवधारणा के अन्तर्गत सभी जन एक कहलाते हैं; न अलगाव; बिलगाव तथा न लगाव। यही ‘तटस्थता का सिद्धान्त’ भी है। यह एक ऐसा राष्ट्रधर्म है, जो ‘पृथक्कता’ के सिद्धान्त मे भी ‘सम्बद्धता’ से परे नहीं रहता। यही समाज का व्यवहार भी है। यह स्थिति तब अधोगति को प्राप्त करने लगती है जब समाज का कोई वर्ग कहने लगे :– यह तेरा है-वह मेरा है; इतना तेरा है-उतना मेरा है। यह तेरा-मेरा का स्वभाव ही समाज मे बिलगाव की स्थिति उत्पन्न करता है। यदि किसी देश का प्रधान ही उस पार्थक्य के लिए उत्तरदायी बनता दिखे तो यह उसके अभियोग्यता, असामर्थ्य तथा विवेकराहित्य का प्रतिपादन करता है। प्रधान एक ऐसा पद है, जिसमे अकूत सामर्थ्य है; परन्तु वह उससे कितना परिचित है; उसके प्रभाव को कितना समझता है तथा उसका सम्बोध कर जनहित मे कितना व्यवहृत कर सकता है, यह उसकी कार्यक्षमता पर निर्भर करता है। ऐसा नहीं कि वह अपनी सामर्थ्य का समाजहित मे प्रयोगकर सामाजिक संरचना को ही छिन्न-भिन्न कर दे, जबकि अतीत मे ऐसा होता हुआ हमने देखा है। देश का प्रधान, विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जिस तरह से सुषुप्त ‘मण्डल-आयोग’ को जाग्रत् कर, समाज मे विषमता की खाई खोद डाली थी, उसका परिणाम ‘आरक्षण’ के रूप मे समाज आज भी भोग रहा है। बहुसंख्य अयोग्य जन का अनुचित पदधारण का विषाक्त प्रभाव और परिणाम से समाज प्रभावित होता आ रहा है; देश की गति-प्रगति प्रभावित होती आ रही है।

‘आरक्षण’ के परिणाम और प्रभाव ने आज देश को अयोग्य और असमर्थ की पंक्ति मे ला खड़ा किया है। यही स्थिति बनी रही तो एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब देश पर ‘नितान्त’ अक्षम, मूल्य और संस्कारविहीन लोग शासन-प्रशासन करने लगेंगे; राजनीति और प्रशासनिक विभाग ‘अपराध’ के पर्याय के रूप मे बहु-विध रेखांकित होते रहेंगे तथा लोकतन्त्र मात्र अभिशप्त बनकर रह जायेगा।

इस विषय पर सामाजिक, बौद्धिक, राजनीतिक तथा संवैधानिक संस्थाएँ मुखर नहीं हो पा रही हैं। सर्वाधिक निन्दनीय और गर्हित भूमिका उस बुद्धिजीवी-वर्ग की है, जो कहीं-न-कहीं नियोजित है (बेरोज़गारी से मुक्त) और स्वयंं तक सीमित रहकर, इस विषय पर संवाद करने और सक्रिय रहने से कतराता आ रहा है। ऐसी क्लीव मनोवृत्तिवाले लोग समाज के लिए नितान्त घातक हैं। जो सामाजिक विकृतियों के विरुद्ध मनसा-वाचा-कर्मणा मे से किसी भी स्तर पर अपना योगदान न करे, उसे समाज मे रहने का कहीं कोई अधिकार नहीं। ऐसे लोग समाज के मूलाधार को शिथिल करने तथा उसकी समरसता को शुष्क और विषाक्त बनाने मे अपनी कुत्सित भूमिका का निर्वहण करते आ रहे हैं। यही कारण है कि देश का प्रत्येक राजनीतिक दल समाज को धर्म, जाति, वर्गादिक मे विभाजित कर, अपना उल्लू सीधा करता आ रहा है और ‘देश’ का ‘काग़ज़ी’ लोकतन्त्र किंकर्त्तव्यविमूढ़ बना हुआ है। ऐसा इसलिए भी कि देश में संसद् की शोभा बढ़ानेवाले अब बिकाऊ हो गये हैं; दूसरे दलों-द्वारा टुकड़े फेंक दिये जाते हैं और उसे कुत्ते की तरह लपककर, दूसरे दलों की चाकरी करने मे जुट जाते हैं; जबकि कुत्ता ‘स्वामिभक्त’ रहा है। ऐसे ही बिकाऊ नेता देश के लोकतन्त्र को नीलाम करने से चूकते भी नहीं।

आज देश के सभी दलों के नेताओं का स्वर आरक्षण के विरोध मे मौन बनकर रह गया है। यही कारण है कि भारतीय संसद् अपनी उदात्त लोकतन्त्रीय परम्परा की मूल धुरी से हट चुकी है। संसद् अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही है;

शिक्षा-दीक्षाविहीन अपराधियों, कुसंस्कारियों से देश की संसद् और राज्य के विधानसभा, विधानमण्डल का ‘महिमा-मण्डन’ होता आ रहा है। जिन धूर्त्त-मक्कार राजनेताओं को अम्बेडकर के विषय मे उसके ‘क, ख, ग’, ‘घ’ तक की समझ नहीं है, वे भी अम्बेडकर/आम्बेडकर/अम्बेदकर/अम्बावाडेकर के नाम पर ‘सरकारी’ दलितों की राजनीति करते हुए, ‘आरक्षण’ का समर्थन करते आ रहे हैं।

‘राजनीति मे आपराधिक गतिविधियों’ से सम्बन्धित गठित ‘बोहरा आयोग’ के प्रतिवेदन और संस्तुतियों से सुस्पष्ट हो चुका है कि ‘अपराध मे राजनीति’ और ‘राजनीति मे अपराध’ एक-दूसरे के पूरक हैं। ऐसे मे, सहज ही कल्पना की जा सकती है कि देश अपकर्ष और नैतिकता-राहित्य पथ की ओर, दूरगामी परिणामो-प्रभावों की चिन्ता किये बिना अति तीव्रगामी होने के लिए व्याकुल है।

भारतीय समाज कैसे विच्छिन्न हो; जाति-धर्म, पन्थ, वर्गादिक मे कैसे पार्थक्य स्थापित हो; सामाजिक मनभेद का कैसे चरम उत्कर्ष हो इत्यादिक कलुषित-कुत्सित चिन्तन अब राजनेताओं के मूल विचार और आचरण-बिन्दु बनकर रह गये हैं। ऐसे मे, स्वस्थ राजनीतिक वातावरण बनने-बनाने का विषय हास्यास्पद प्रतीत होता है। ऐसी समाज और राष्ट्रघाती परिस्थितियों से जनसामान्य आक्रान्त है और सत्तालोलुप स्वकेन्द्रित तत्त्व जघन्य स्वार्थ-सिद्धि की दिशा मे प्रयत्नशील हैं। दूसरे शब्दों में, “फूट डालो और शासन करो” को चरितार्थ करते हुए, किंकर्त्तव्यविमूढ़ की मन: दशा मे लोक, ‘तन्त्र’ के अधीन बनकर मूकदर्शक की भूमिका मे दृष्टिगोचर होता रहेगा।

आरक्षण का विरोध करना, अब अपरिहार्य हो गया है; क्योंकि वर्तमान केन्द्रीय शासन ने ‘सत्ता की गर्हित’ राजनीति करते हुए, ‘आरक्षण-पर-आरक्षण’ यानी कुछ जातियों के लिए पदोन्नत मे भी आरक्षण को लागू कराने का आदेश करा दिया है। ऐसा इसलिए भी कि विकास और सनातनी हिन्दुत्व की राजनीति कर, अपना प्रभाव-प्रसार करनेवाले सत्ताधारी राजनेता जब अपनी नीयत और नीति मे धोखेबाज़ी का तत्त्व मिलाने मे पूर्णत: विफल हो गये तब ‘दलित चाल’ चलकर देश की मुख्य धारा को अपने पक्ष मे मोड़ने की दिशा में लग गये हैं, जिसे देश का जागरूक मतदाता जानने और समझने लगा है। जो सो रहे हैं, वे खो रहे हैं।

‘आरक्षण’ और ‘पदोन्नति-आरक्षण’ समाप्त करने के विषय मे गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करने और समाधान-निराकरण करने-हेतु प्रयास करने के लिए किसी भी राजनेता के पास अवकाश तक नहीं है; देश की अधिकतर जनता इस विषय पर बँटी हुई है; क्योंकि सरकारी उपक्रम रचकर जनता को उदरपूर्ति करने मे येन-केन-प्रकारेण जुटी हुई है। इसके साथ ही वह नख-शिख आपराधिक गतिविधियों का विविध भूमिकाओं मे संचालन करने मे निष्णात भी हो चुकी है। देश की समस्त जातियों-वर्गों, धर्मों आदिक के प्रतिनिधि-वर्गों को इस दिशा मे समग्रत: गम्भीरतापूर्वक ‘राजनीति-निरपेक्ष’ संवाद करना होगा। आरक्षण असाध्य नहीं है; परन्तु इसके लिए ‘स्वार्थपरता’ के सघन अरण्य से निकलना होगा।

निस्सन्देह, समाज के निर्बल जाति, वर्गादिक को प्रत्येक स्तर पर ‘मानवीय’ आधार पर सहयोग-सहायता-साधन-सुविधा प्राप्त होनी चाहिए, ताकि समाज मे उनका भी उन्नत स्थान बना सके; किन्तु ‘जाति, वर्गादिक-विशेष’ के आधार पर कदापि नहीं। इससे जातीय, वर्गीय आदिक वैमनस्य और द्वेष की ‘चिनगारी’ फूटने लगेगी, जो ‘महाज्वाल’ का रूप लेकर भारतीय समाज की शेष अखण्डता को भी भस्मीभूत कर देगी; अत: समाज की समरसता मे हलाहल मिश्रित करनेवाले समाजद्रोही वर्ग का पूर्णत: बहिष्कार करने की अब आवश्यकता है; क्योंकि ऐसे राष्ट्रघाती तत्त्व जब अलग-थलग पड़ जायेंगे तब उनकी सारी शक्ति क्षीण होती जायेगी; परिणामत:-प्रभावत: उनकी सक्रियता भी शिथिल दिखने लगेगी।

अस्तु, समाज के समस्त जातियों और वर्गों को आरक्षण और पदोन्नति-आरक्षण के विरोध मे मुखर होकर आना होगा, अन्यथा देश के बहुसंख्य मनबढ़ ग़द्दार नेता अपनी सत्ता को बचाने और बनाने के लिए किसी भी सीमा का उल्लंघन कर सकते हैं।

आइए! हम सब राष्ट्र के उत्थान मे अपना योगदान करने मे समर्थ युवा-वर्ग के पक्ष मे सामान्य आरक्षण और पदोन्नत के लिए दिये जानेवाले आरक्षण का मुक्त भाव-विचार के साथ समवेत स्वर मे विरोध प्रकट करने के लिए शपथ लें और संकल्प करें।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ९ अगस्त, २०२३ ईसवी।)