प्रकट होते, एक-से-बढ़कर-एक व्याकरणाचार्य!

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

कल (१७ सितम्बर) एक शिष्य ने मेरे पास सप्रमाण सूचना प्रेषित की थी, “गुरुदेव! आपके ‘परमप्रिय शिष्य’ कहलानेवाले…… (उसका नाम प्रकाशित नहीं करना चाहता।) ने एक व्याकरण की पुस्तक लिख डाली है और आपकी पुस्तक ‘समग्र सामान्य हिन्दी’ मे से ‘समग्र’ शब्द लेकर ‘समग्र व्याकरण कौमुदी’ पुस्तक लिख डाली है और उसका लोकार्पण भी करा लिया है।”

अब रहा विषय मेरे पुस्तक-नाम मे से ‘समग्र’ शब्द को लेने का तो ज्ञात होना चाहिए कि कोई भी शब्द किसी का अपना तब तक नहीं कहलाता जब तक वह शब्द किसी की स्वयं की रचना वा अन्वेषण नहीं होता, फिर वह शब्द जब तक बौद्धिक सम्पदा के रूप मे अधिकृत (पेटेण्ट) न किया गया हो।

वह धूर्त्त, असत्यवादी तथा कथन-कर्म मे एक रूप न रहनेवाला व्यक्ति है। यही कारण था कि मैने उसे अपने हृदयप्रान्त से निष्कासित कर दिया था। वह राजनेताओं के सम्पर्क मे भी बने रहनेवाला व्यक्ति रहा है; शासकीय उपक्रमो मे ठीकेदार-जैसी भूमिका भी जीता रहा है। वह मुझे स्वयं को राजनीति से दूर रहने का अनेकश: भरोसा दिलाता रहा; परन्तु ‘पापपंक’ मे फँसता रहा।

निस्सन्देह, यह हतप्रभ करनेवाला विषय है कि जिस व्यक्ति को व्याकरण की दृष्टि से अभी ‘शैशव-काल’ की ओर बढ़ता हुआ कहा जायेगा, वह व्याकरण-जैसे दुरूह विषय पर लेखन कर ले।

हाँ, यह भी सत्य है कि वह व्यक्ति मुझसे कुछ वर्षों से अत्यन्त निकट से जुड़ा हुआ था; मै उसे कई आयोजनो मे बाहर भी ले गया था; उसने मेरी कई कर्मशालाओं के आयोजन भी कराये थे तथा अपने अनेक आयोजनो मे महत्त्व भी दिया था। उसकी ललक को देखकर मेरी इच्छा भी थी कि उसे व्याकरण का परिज्ञान हो तथा वह मेरी शब्दसम्पदा का संवहन करे; परन्तु अपने विपरीत कर्मो के कारण मुझसे दूर होता रहा; अब तो सुदूर है।

मेरी पाठशाला के समानान्तर वह अपनी भी एक पाठशाला संचालित करता था, फिर मैने उसे समझाया था कि वह अभी जो कुछ भी पाठशाला के नाम पर प्रस्तुत कर रहा है, वह व्याकरणसम्मत नहीं है; यदि कोई विद्यार्थी वा अध्यापक पाठशाला मे प्रेषित किये गये शब्द से सम्बन्धित प्रश्न कर लेगा तो वह उसी मे उलझकर रह जायेगा; पहले वह व्याकरण का गहन अध्ययन कर ले, ताकि उसकी पाठशाला मे प्रस्तुत किसी शब्द से सम्बन्धित कोई विद्यार्थी वा अन्य कोई प्रश्न-प्रतिप्रश्न करे तो वह संतुष्टिप्रद उत्तर दे सके। विषय की गम्भीरता को समझने के बाद वह मान भी गया था और उसने अपनी पाठशाला स्थगित कर दी थी।

अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी होना, कोई अन्यथागामी विषय नहीं है; परन्तु ज्ञान और बोधस्तर पर सामर्थ्यरहित रहकर कुँलाचे भरना, दिशाहीनता का परिचायक कहलाता है। उस व्यक्ति की प्रयागराज से कौशाम्बी तथा अन्य स्थानो के कई शिक्षणसंस्थानो मे गहरी पैठ रही है। वह कौशाम्बी की किसी प्राथमिक शाला मे अध्यापक भी है।

अब यहाँ प्रश्न है, यदि उस व्यक्ति की पुस्तक शिक्षण-संस्थानो मे विद्यार्थियों के हाथों मे पहुँचेगी तो क्या होगा? जो ‘कथित व्याकरणाचार्य’ शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाता है और न ही लेखन कर पाता है, जितना मुझसे सीख पाया है, केवल उसी के आधार पर वह यदि व्याकरण-विषय पर एक पुस्तक का प्रणयन कर दे तो इससे अधिक विडम्बना और क्या हो सकती है!

जिस व्यक्ति को न तो संधि, समास, उपसर्ग, प्रत्यय, धातु, विसर्ग आदिक का बोध है और न ही काव्यांग का संज्ञान, वह अपनी मौलिकता कैसे प्रस्तुत कर पायेगा? उसे मैने अपनी व्याकरण, समान्य हिन्दी आदिक की कई पुस्तकें दी थीं, उन्हीं मे से बायें-दायें करके पुस्तक बना ली होगी, इसी की पूरी सम्भावना है।

ऐसे लोग विद्या और विद्यार्थियों के लिए ‘महाघातक’ सिद्ध होते हैं।

(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १८ सितम्बर, २०२३ ईसवी।)