हमारी ‘भक्ति’ चन्दन के टीके से साबित होती है, महामारी के टीके से नहीं


—-सन्त समीर (प्राकृतिकचिकित्सा विशेषज्ञ व वरिष्ठ पत्रकार)

ओमिक्रॉन से जिन्हें आतङ्कित रहना हो, रहें, हमारे जैसे लोग के लिए इसका कुछ ख़ास अर्थ नहीं है। असल तो यह कि भारत में स्वाभाविक सङ्क्रमण जितना हो चुका है, उसके चलते यहाँ किसी को भी डरने की ज़रूरत नहीं है, फिर भी कुछ हो तो बिना दवा के सिर्फ़ नेचुरोपैथी ही काफ़ी है। आयुर्वेद की जड़ी-बूटियाँ भी हमारे पास हैं ही। कुछ और बात बढ़े तो हम होम्योपैथी की लाक्षणिक चिकित्सा वाले लोग हैं, जैसे लक्षण होंगे, इलाज हाज़िर है। हमें महीनों-वर्षों वैक्सीन और दवा बनाने की उठापटक करने की ज़रूरत नहीं है। मैं तो ख़ैर होम्योपैथी की कुछ दवाएँ सुझा भी देता हूँ, पर डॉ. बिस्वरूप राय चौधरी ने तो बिना किसी दवा के, सिर्फ़ खानपान से ही हज़ारों नहीं, बल्कि लाखों लोग को अब तक बचाए रखा है। मतलब यह कि हम जिस रास्ते पर चलकर बिना मास्क वग़ैरह लगाए कोरोना मरीज़ों की पीठ थपथपाते हुए भी अब तक बचे रहे हैं, उसी रास्ते पर आगे भी चलते रहेंगे। भक्तों की अपनी प्यारी सरकार को कैसे समझाएँ कि हमारी ‘भक्ति’ चन्दन के टीके से साबित होती है, महामारी के टीके से नहीं। मास्क, हैण्ड सेनेटाइज़र वग़ैरह की हमें ज़रा भी ज़रूरत नहीं है।

वैसे, जिस वैज्ञानिक लड़की ने ओमिक्रॉन को सबसे पहले तलाशा, वह भी कहती रही है कि इसके कुछ ख़ास मुश्किल वाले लक्षण दिखाई नहीं दिए हैं, इसलिए डरने जैसी कोई बात नहीं है। यह भी समझने की ज़रूरत है कि ओमिक्रॉन जब से खोजा गया, ज़रूरी नहीं कि बस तभी से इसका अस्तित्व हो, बल्कि काफ़ी समय पहले से इसकी मौजूदगी हो सकती है। इसके अलावा कोरोना वायरस के कुनबे में अब तक हज़ारों म्यूटेशन हो चुके हैं। आरएनए वायरस की फ़ितरत में ही है बार-बार म्यूटेशन करना, पर धूर्त धन्धेबाज़ ऐसे प्रचारित कर रहे हैं, जैसे कि यह कोई भयानक बात हो गई है।

दिलचस्प है कि विज्ञान के कामधाम से गहरे तक जुड़े हुए वास्तविक वैज्ञानिक कह रहे हैं कि डरने की कोई बात नहीं, पर दुर्भाग्य से महान् विशेषज्ञ अब वे बन गए हैं, जिन्होंने कैसे भी एमबीबीएस कर लिया है। चैनलों पर वे ही ज्ञान बघार रहे हैं। भले ही हृदय रोग वाले डॉक्टर को कैंसर के मरीज़ का इलाज करने से रोक दिया जाय, ईएनटी वाले को त्वचा की बीमारी के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाय, पर वायरस पर भाषण झाड़कर डराने के लिए वायरोलॉजिस्ट होना नहीं, बल्कि बस एमबीएस होना भर ही काफ़ी है। नाम के आगे डॉक्टर लगा हो तो दाँत उखाड़ने-बैठाने का धन्धा करने वाला भी वायरस का चाल-चरित्र बताने वाला विशेषज्ञ दिखने लगता है।

माना कि ओमिक्रॉन बहुत तेज़ी से फैल रहा है और कई देशों में अपने पाँव पसार चुका है, तो सवाल यह है कि ओमिक्रॉन को एक देश से दूसरे देश में किसने फैलाया या कौन फैला रहा है? उत्तर भी हम जानते ही हैं कि जो लोग हवाई यात्राएँ करके एक देश से दूसरे देश में गए या जा रहे हैं, वे ही ओमिक्रॉन को भी अपने साथ घुमा-फिरा रहे हैं। हवाई यात्राएँ कौन लोग कर सकते हैं? इसका भी उत्तर स्पष्ट है कि जिनका टीकाकरण हो चुका हो। कई देशों में, जहाँ टीके की सुविधा नहीं थी, तो वहाँ के लोगों ने हवाई यात्रा के लिए पड़ोसी देशों तक में जाकर टीके लगवाए, इसके बाद ही हवाई जहाज़ में बैठ सके। इसका साफ़ मतलब है कि टीका लगवाए हुए लोग ही सङ्क्रमण फैला रहे हैं। मीडिया और मेडिकल माफ़िया की मिलीभगत देखिए कि मीडिया वाले यह तो बताते हैं कि फलाँ देश से फलाँ व्यक्ति आया और साथ में वायरस ले आया, पर यह नहीं बताते कि जो वायरस लेकर आया, उसने बाक़ायदा टीका भी लगवा रखा था।

क्या अब भी समझना मुश्किल है कि ज़्यादा ख़तरनाक टीका लगवाए हुए लोग हैं या बिना टीका वाले लोग? चाहे टीका लगे लोग हों या बिना टीका लगे लोग, मास्क, हैण्ड सेनेटाइज़र की सरकारी हिदायत दोनों के लिए बराबर है, क्योंकि तमाम शोध साबित कर चुके हैं कि टीके वाले लोग भी उतने ही ‘सुपर स्प्रेडर’ हो सकते हैं, जितने कि बिना टीका लगे लोग। वास्तव में टीका लगे लोग ज़्यादा ख़तरनाक साबित हो सकते हैं, क्योंकि वे टीका लगवाने के बाद इस भ्रम में जीने लगते हैं कि वायरस उन्हें सङ्क्रमित नहीं करेगा और वे दूसरों को सङ्क्रमित नहीं करेंगे। मतलब यह कि टीका लगवाए हुए लोग ज़्यादा लापरवाह रहेंगे और ज़्यादा सङ्क्रमण फैलाएँगे।

अजब है कि टीके का ओमिक्रॉन पर अभी तक कोई असर नहीं पता चला है, सङ्क्रमण तो ख़ैर ज़रा भी नहीं रुकता, पर जैसे ही मीडिया ने इसका आतङ्क दिखाना शुरू किया तो टीका केन्द्रों पर फिर से भीड़ बढ़ने लगी। साफ़ दिख रहा है कि असली मक़सद टीके की मानसिकता बनाना है और इसमें धन्धेबाज़ कामयाब होते दिख रहे हैं।

मज़ा यह भी देखिए कि चार-पाँच दिन पहले हमारी केन्द्र सरकार देश की सर्वोच्च अदालत में लिखित स्पष्टीकरण देती है कि टीकाकरण स्वैच्छिक है और किसी को ज़बरदस्ती टीका नहीं लगाया जा रहा, पर दूसरी ओर पाण्डिचेरी से ख़बर आती है कि वहाँ के प्रशासन ने टीका अनिवार्य कर दिया है। ऐसा लगता है कि हमारे सत्ताधीश धूर्त धन्धेबाज़ों द्वारा ठीक-ठाक ढङ्ग से मूर्ख बना दिए गए हैं और लोकतन्त्र के लिए नहीं, मेडिकल माफ़िया के ‘लोभ-तन्त्र’ के लिए काम करने लगे हैं।

ग़ज़ब है कि महामारी से जिन देशों में सबसे ज़्यादा लोग मौत के शिकार हुए हैं, वहाँ लगातार टीके का विरोध हो रहा है, पर हिन्दुस्तान जैसे देश, जहाँ के लिए सिद्ध हो चुका है कि यहाँ के खानपान में भी बचाव के बेहतर साधन मौजूद हैं, वहाँ एकदम सन्नाटा है। असल में विपक्ष ख़ुद को बहुत पहले ही अप्रासङ्गिक बना चुका, लोगों को थोड़ी-बहुत उम्मीद मोदी जी में ही अब भी दिखाई दे रही है, तो ऐसे में टीके के नाम पर उनका विरोध करके इस उम्मीद को भी भला क्यों समाप्त किया जाय! ऐसी मानिसकता तमाम लोगों में मैं देख रहा हूँ।

जो भी हो, आम जनता में विज्ञान की बुनियादी समझ जब तक नहीं पैदा होगी, तब तक विज्ञान के धूर्त धन्धेबाज़ ऐसे ही कामयाब होते रहेंगे।