
— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
रात घिरती रही, दीप जलता रहा।
साज-श्रृंगार+ करती रही ज़िन्दग़ी,
रूप भरती-सँवरती रही ज़िन्दग़ी।
बेख़बर वक़्त की स्याह परछाइयाँ,
उम्र चढ़ती-उतरती रही ज़िन्दग़ी।
साध के फूल कुँभला गये द्वार पर,
प्यास की तृप्ति का गाँव छलता रहा
रात घिरती रही दीप जलता रहा।
छोड़ता हूँ विगत की कहानी यहाँ,
फिर मिलेगी नयी ज़िन्दगानी वहाँ।
ओ बटोही! चलो उस जगह पर जहाँ-
सन्त करके सदा तप जिसे पा सका।
रोक सकता नहीं कोई मेरी डगर,
सोच कर राह अपनी मैं चलता रहा।
रात घिरती रही दीप जलता रहा।
बढ़ गयी वेदना की जलन इस तरह,
आस-विश्वास की जल गयी पाँखुरी।
मार्ग पर अड़चनें तो बिखरती रहीं,
मंज़िलों का इशारा बदलता रहा।
रात घिरती रही दीप जलता रहा।
हम वहाँ जा रहे हैं जहाँ से मनुज,
लौट कर फिर यहाँ पर नहीं आ सका।
जा रहा हूँ जहाँ मनुज बेरहम,
मनुज का ठिकाना नहीं पा सका।
दम निकल जो गया फिर नहीं मिल सका,
भर आँखों में आँसू मैं चलता रहा।
रात घिरती रही दीप जलता रहा।
स्वर समेटे हुए मन-व्यथा को लिये,
शून्य-सौन्दर्य से मन मिलाते हुए।
जा रहा हूँ जहाँ जो गया रह गया,
जो उठा स्वर गगन तक नहीं चल सका।
औ’ मिटाकर कसक की कहानी यहाँ,
आँसुओं से दामन मैं भरता रहा।
रात घिरती रही दीप जलता रहा।
- यह ‘श्रृंगार’ शब्द अशुद्ध है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज ; २९ जून, २०२० ईसवी)