चलो! हम वहाँ चलें

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

हवा यहाँ उदास कुछ,
धुन्ध आस-पास कुछ।
गुब्बार-ही-गुब्बार है;
           चलो! कहीं दूर चलें।
रूप-रंग नहीं निखरे,
गेसू सब ओर बिखरे।
संयम अब चंचल है;
           चलो! कहीं दूर चलें।
घर-द्वार साँय-साँय,
चहुँ दिशि भाँय-भाँय।
चेहरे पे बेनूरी पसरी;
            चलो! कहीं दूर चलें।
धूप है खड़ी-खड़ी,
परछाईं बड़ी-बड़ी।
स्याह रात बढ़ रही;
           चलो! कहीं दूर चलें।
आग वहाँ हम बोयेंगे,
ज़ालिम मिल रोयेंगे।
ज़िन्दगी होगी रौशन;
            चलो! हम वहाँ चलें।
अनकही भी कही होगी,
बिनब्याही ब्याही होगी।
साध की कली खिले;
            चलो! हम वहाँ चलें।
धर्म का बीज न दिखे,
जाति की खाद न दिखे।
सर्वधर्म समभाव हो;
            चलो! हम वहाँ चलें।
राजनीति नंगी न हो,
सत्ता की बेशर्मी न हो।
दरिन्दे नेता न दिखें;
            चलो! हम वहाँ चलें।
हवा सुखद दिखे,
जल मुदित दिखे।
वादी मुसकराती हो;
            चलो! हम वहाँ चलें।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २२ अगस्त, २०२० ईसवी)