विडम्बनावश

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

यक़ीन नहीं आता
मैं ख़ुद को देख रहा हूँ।
अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के गलियारे में
मैं ढूँढ़ रहा हूँ
अपने न होकर भी हो जाने के साक्ष्य को
पर हर बार
ख़ुद को ख़ुद से
ठगा हुआ पा रहा हूँ।
निगाहों में पांचाली ठहर आती है
और टुकुर-टुकुर ताकतीं
पुरुषार्थ के धनी
पञ्च पाण्डवों की
लाचारगी में सनी
कातर-विक्षुब्ध आँखें।
मैंने भी दृष्टिपथ को
दिशान्तर कर लिया है।
स्वयं-से-स्वयं की पराजय की अनुभूति
अत्यन्त नुकीली और धारदार होती है।
देश-काल-पात्र की
रीति ही निराली है।
पराजित होकर भी
मेरी आकांक्षा धूमकेतु-सदृश
अपने पथ पर अग्रसर है,
जो अग्निपथ से ऊर्जा और ऊष्मा लेकर
लील जायेंगी मेरी दुर्बलताएँ ।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २९ जून, २०२० ईसवी)