● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
ग़म-ख़ुशी का फ़र्क़, महसूस होता है;
यहाँ न कोई अपना, महसूस होता है।
सौग़ात में मिलता रहा, दर्द का पिटारा;
रिश्तों में दरार, अब महसूस होता है।
जवानी ने भी छीन लीं, किलकारियाँ;
बचपन बुढ़ापे-सा, महसूस होता है।
कुछ अपने-से लगे, पर उतने हैं नहीं;
जाने क्यों ख़ालीपन, महसूस होता है।
क़दम बहकते रहे, दर-ब-दर ही रहा;
मंज़िल का बहकना, महसूस होता है।
पलकें उलझती रहीं, आँसू नहीं थमे;
काजल का धुलना, महसूस होता है।
आओ ‘पृथ्वी’! चलें, उस दिशा मे हम;
जहाँ कुछ बेहतर-सा महसूस होता है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ८ अक्तूबर, २०२२ ईसवी।)