अन्धेरा भीतर भरा, बाहर दीप-प्रकाश

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक–
इधर लाश-अम्बार है, उधर चुनावी बोल।
लज्जा हँस-हँस घूमकर, पीट रही है ढोल।।
दो–
लोग बने लतख़ोर हैं, आँख हुई हैं बन्द।
नेता हैं सब जानते, रचते तब फरफन्द।।
तीन–
अन्धेरा भीतर भरा, बाहर दीप-प्रकाश।
भूख देह को खा रही, रोटी मिलती काश।।
चार–
देखो आँखें खोलकर, लूट रहे हैं देश।
कोई चौकीदार बन, छले फ़क़ीरी वेश।।
पाँच–
रोज़गार को भूलकर, रोज़ जपो श्री राम।
गुण्डों के साथी बनो, होंगे सारे काम।।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ६ नवम्बर, २०२२ ईसवी।)