बदले अन्दाज़ हैं; भाँपिए ज़रूर

सीरत की बनावट पे मत जाइए,
सूरत की सजावट पे मत जाइए।
महब्बत की राह मे हैं धोखे बहुत,
नज़रों की बुनावट पे मत जाइए।
प्यासे हैं तो पीकर खिसक लीजिए,
नदियों की गुनगुनाहट पे मत जाइए।
कमीनी सियासत की फ़ित्रत भी क्या,
खद्दर की पहनावट पे मत जाइए।
बेहतर है, रौशनी चाँद से ले लें,
सूरज की गरमाहट पे मत जाइए।
बदले अन्दाज़ हैं; भाँपिए ज़रूर,
ज़ह्रीली मुसकराहट पे मत जाइए।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय; १ फरवरी, २०२४ ईसवी।)