अमित धर्मसिंह (बेहद सम्भावना से भरे मित्र अमित धर्म सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध अध्येता हैं)–
आठ बाई दस के
कड़ियों वाले कमरे में पैदा हुए,
खेलना सीखा तो
माँ ने बताया
हमारे कमरे से लगा कमरा
हमारा नहीं है,
दस कदम की दूरी के बाद
आँगन दूसरों का है।
हर सुबह
दूसरों के खेतों में
फ़ारिग़ होने गये
तो पता होता कि खेत किसका है
उसके आ जाने का डर
बराबर बना रहता।
तोहर के पापड़ों पर लपके,
या गन्ने पर रीझे
तो माँ ने आगाह किया कि
खेतवाला आ जायेगा।
दूसरों के कुबाड़े से
माचिस के तास चुगकर खेले
दूसरों की कुड़ियों से
पपैया फाड़कर बजाया
दूसरों के खेतों से बथुआ तोड़कर लाये,
आलू चुगकर लाये,
दूसरों के खेतों में ही
गन्ने बुवाते
धान रोपते, काटते,
दफन होते रहे हमारे पुरख़े
दूसरों के खेतों में ही।
ये खेत मलखान का है
वो ट्यूबवेल फूलसिंह की है
ये लाला की दुकान है
वो फैक्ट्री बंसल की है
ये चक धुम्मी का है
वो ताप्पड़ चौधरी का है,
ये बाग़ खान का है,
वो कोल्हू पठान का है,
ये धर्मशाला जैनियों की है,
वो मंदिर पंडितों का है,
कुछ इस तरह जाना
हमने अपने गाँव को।
हमारे गाँव में हमारा क्या है!
ये हम आज तक नहीं जान पाए।