मर्म बिलखता है यहाँ, तन सहलाये घाव

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक–
लाश तैरती हर तरफ़, शोक कर रहा ‘शोक’।
जीवन बहता जा रहा, कोई रोक-न-टोक।।
दो–
परे शोक-संवेदना, मृत्यु करे आखेट।
शासन निर्दय दिख रहा, आते लोग चपेट।।
तीन–
नेता कैसे देश मे, करते केवल भोग।
मतलब केवल ‘वोट’ का, नहीं समझते लोग।।
चार–
प्रथा निराली हैं यहाँ, धर्म पर मरते लोग।
मानवता को दाबकर, बाँट रहे हैं रोग।।
पाँच–
अन्धभक्ति की जकड़ मे, साँस ले रहा देश।
घुटते-मरते सब यहाँ, नहीं बदलते वेश।।
छ:–
उठे आँख जिस ओर भी, दिखता भीषण रूप।
शासन को चिन्ता कहाँ, भाँग दिखे हर कूप।।
सात–
मर्म बिलखता है यहाँ, तन सहलाये घाव।
जन करता अभ्यर्थना, नहीं दिखे है नाव।।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १६ जुलाई, २०२३ ईसवी।)