मेरी संजीदगी मत छेड़, उसे चुपचाप रहने दे

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

बदन के खटते१ रहने पे, हरारत आ ही जाती है,
लबों के मुसकराने पे, नज़ारत२ आ ही जाती है।
देता ही रहा हर पल गवाही, उनकी फ़ित्रत का,
तभी तो देखते उनको, हक़ारत३ आ ही जाती है।
अगरचे मान लूँ कहना, क़यामत फिर तो तुम समझो,
यक़ीं अब कर भी लूँ कैसे, नज़ारत४आ ही जाती है।
भले पर्वाज़ दिखती मेरी अब, अपनी बलन्दी पे,
ज़मीं का हूँ 'ज़मीं पे' बसारत५, आ ही जाती है।
मेरी संजीदगी मत छेड़, उसे चुपचाप रहने दे, 
उसे क्यों देखते तुझको, शरारत आ ही जाती है?

शब्दार्थ :– १- परिश्रम करना (यह आँचलिक शब्द है।) २- हरीतिमा, नवीनता ३- तिरस्कार ४- निरीक्षण (यहाँ ‘नज़ारत’ शब्द का प्रयोग पूर्व के ‘नज़ारत’ के प्रयोग से भिन्न है।) ५- दृष्टि।

(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १७ फरवरी, २०२३ ईसवी।)