नज़रें जिधर घुमाइए, दिखते चोर-दलाल

——० यथार्थ-दर्शन– पाँच०—–

एक–
जनता हालत दिख रही, मानो हुई हलाल।
नज़रें जिधर घुमाइए, दिखते चोर-दलाल।।
दो–
छीलो कटहल बैठकर, देखो नंगा नाच।
चड्ढी टँगती खूँट पे, फोड़ो सिर पर काँच।।
तीन–
कोई हो राजा-प्रजा, नहीं दिखे है फ़र्क़।
अपराधी हर घर दिखे, दिखे न कोई तर्क।।
चार–
राजनीति-दरबार मे, बिछती दिखे बिसात।
कोई सगा यहाँ नहीं, सब मिल करते घात।।
पाँच–
छिपा नहीं पाते यहाँ, सब अपनी पहचान।
लूट रहे सब देश को, बारी-बारी जान।।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २ फ़रवरी, २०२४ ईसवी।)