— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
ग़म-ख़ुशी का फ़र्क़ महसूस होता है,
अपना यहाँ न कोई महसूस होता है।
सौग़ात में पाता रहा नायाब इक दर्द,
रिश्तों में दरार अब महसूस होता है।
जवानी ने भी छीन लीं किलकारियाँ,
बुढ़ापे का बचपन महसूस होता है।
कुछ अपने-से लगे हैं पर उतने नहीं,
जाने क्यों ख़ालीपन महसूस होता है।
चलो चलें ‘पृथ्वी’! इस बस्ती से अब दूर,
जहाँ कुछ बेहतर महसूस होता है।