कवि! हरे-भरे खेतों मे चल

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

कवि! हरे-भरे खेतों मे चल।
तू देख चुका शहरी जीवन,
वैभव के सब नन्दन-कानन।
क्या देखा-क्या पाया तूने,
धनिकों के उर का सूनापन?
अब उठा क़दम, दोपहर हुआ,
उन दु:खियों के आँगन मे चल।
कवि! हरे-भरे खेतों मे चल।
वे भले अशिक्षित, सौम्य-सरल,
कितना पवित्र उनका जीवन!
बोली मे कोयल कूक भरी,
दिल मे रहता है, अपनापन।
छल-द्वेष-घृणा से दूर बसे,
कान्हा के वृन्दावन मे चल।
कवि! हरे-भरे खेतों मे चल।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १७ जून, २०२२ ईसवी।)