जगन्नाथ शुक्ल, इलाहाबाद
सूरज तो कुछ उकता-सा गया है,
दिन अब कुछ मुरझा-सा गया है।
ये कण्ठ नहीं है अवरुद्ध तुम्हारा,
धरा को क्यों उलझा-सा गया है।।
सूरज तो………………………. ..
अब मुक्त करो निज बाहुपाश से,
मिथ्या प्रवंचना औ मीठी आस से।
प्रतिपल राष्ट्रवाद की बजा दुंदुभी ,
फूल दिखाया किन्तु नित सुई चुभी।
जोश मेरा कुछ सुस्ता-सा गया है,
सूरज तो ………………………
हद है राजन्! तेरी राम कहानी,
तूने याद दिला दी सबको नानी।
भूखा-नंगा हो सारा देश मर रहा,
तेरा पराये देशों से मन न भर रहा।
मेरा स्किल मुश्किल में पड़ गया,
खुद में खुद से ही मैं लड़ गया।
पूरा देश बन पकौड़ा-सा गया है,
सूरज तो……………………..