ज़िन्दगी को मैने नज़दीक से निहारा है

बुझे चूल्हे देखे, गमगीन पड़े घर देखे

डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी-


जिंदगी को मैंने नजदीक से निहारा है ।
जेठ की दुपहरी में देखा बदन जलता हुआ।
पसीने की बूंदो से तर बतर ,
वो काला नर,
बैलों के साथ मे ही बैल बन के चलता हुआ ।
न..न..ब..ब..की धुन पे पैर थिरकते उसके ,
लोहे के हाथ पैर है ,जो न थकते उसके ?

मैंने बरसात में देखी खेतों की किचकिच ,
उँगलियों के सड़ गये पोर मैंने देखे हैं।
चरर..चरर करते हँसिये भी सुने मैने ,
पके गेहूँ के चैत भोर मैंने देखे है ।
बोझ भारी देखे सिर पर ,
लचकती देखी कमर ,
भूसे के भूहे में देखे पटे हुए छप्पर ।
धान की निराई,
जोंके लिपटा बाहर आये ।
धान की पुआलों पर मैंने
मुड़कुले खाये ।
मैंने पकी फसल पर गिरते ओले देखे ।
पकी फसल में लगी आग के शोले देखे ।
आधी धोती में मैंने रोते हुए नर देखे ।
बुझे चूल्हे देखे, गमगीन पड़े घर देखे ।
घाघरा का कफन सा फैला हुआ जल देखा ।
डुबाता शस्य को ,मैने नदी का बल देखा ।

कभी जीवन दिया प्रकृति ने, कभी मारा है ।
जिंदगी को मैंने नजदीक से निहारा है ।