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पं० प्रभात शास्त्री की तेईसवीं पुण्यतिथि (१ जनवरी) पर विशेष प्रस्तुति

पं० प्रभात शास्त्री की विद्वत्ता अपराजेय थी

इलाहाबाद और प्रयागराज अपनी बौद्धिक सम्पदा को हज़ारों वर्षों से समेटे हुए है। वह धरोहर ऐसी है, जिसमे जीवन का प्रत्येक पक्ष समाहित है। यहाँ एक-से-बढ़कर-एक विभूति रही हैं, उन्हीं मे से एक थे, ‘पं० प्रभात शास्त्री’। प्रयाग मे गंगातट पर स्थित दारागंज मे निवास करते हुए, पं० प्रभात शास्त्री जीवनपर्यन्त संस्कृतभाषा और साहित्य के संवर्द्धन मे लगे रहे। उनका मौलिक लेखन, अनुवाद तथा सम्पादनकर्म उल्लेखनीय रहा। ‘काव्यांग-कल्पद्रुम’ के प्रणेता पं० शास्त्री ‘मूलरामायणम्’ (वाल्मीकि रामायण), ‘संगीतमाधवम्’, ‘श्रीजानकीगीतम्’, ‘पाणिनि तथा संस्कृत के अन्य अल्पज्ञात कवियों की रचनाएँ’ आदिक का सम्पादन कर, अपनी प्रशंस्य सम्पादनकला को रेखांकित किया था। उन्होंने ‘गीत गिरीशम्’ का प्रभावकारी अनुवाद कर, अपनी संस्कृत-विद्वत्ता का बहुविध परिचय दिया था।

हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं० प्रभात शास्त्री-द्वारा सम्पादित कृति ‘राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन : व्यक्ति और संस्था’ का प्रकाशन सम्मेलन की ओर से किया गया था।

आज (१ जनवरी) उनकी तेईसवीं पुण्यतिथि के अवसर पर विश्रुत संस्कृत-विद्वान् डॉ० रहसबिहारी द्विवेदी ने बताया, “मेरे पिताश्री ज्योतिषाचार्य पं० रामाभिलाष द्विवेदी प्रभात जी के मित्र थे। मै पिता जी के साथ दारागंज-स्थित उनके निवासस्थान पर जाया करता था और प्रभात जी से श्लोक-रचना सीखता था। उन्होंने रागकाव्यों की जितनी भूमिकाएँ लिखी थीं, उनका संग्रह कर, ‘रागकाव्यविमर्श:’ का प्रकाशन हुआ था, जिसकी भूमिका मैने लिखी थी। उनकी शैली मे अद्भुत शास्त्रीयता थी।”

प्रभात शास्त्री के सुपुत्र और हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वर्तमान प्रधानमन्त्री विभूति मिश्र ने बताया, “मै बाबू जी को बचपन से देखता रहा। उनकी संस्कृत-भाषा के प्रति निष्ठा देखते ही बनती थी। वे धारा-प्रवाह संस्कृत-सम्भाषण करने मे दक्ष थे। वे वेद-वेदान्त तथा अन्यान्य शास्त्र-पुराणो के अनुवाद करने और संस्कृत-भाषा मे किसी भी विषय पर शास्त्रार्थ करने मे सिद्धहस्त थे।”

भाषाविज्ञानी और समीक्षक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय का कहना है, “आचार्य शास्त्री का स्मरण करते ही हमारे सम्मुख संस्कृत-भाषा और साहित्य की शास्त्रीयता प्रकट होने लगती है। ओजस्विता के साथ संस्कृत मे धाराप्रवाह संवाद करनेवाले पं० प्रभात शास्त्री पाण्डित्य के संवाहक थे। यही कारण है कि उनकी विद्वत्ता अपराजेय रही। खेद इस बात का अवश्य है कि उनके समकालीन और पश्चात् की पीढ़ियों ने पं० शास्त्री से उनका पाण्डित्य ग्रहण नहीं किया; क्योंकि यदि किया होता तो आज संस्कृत-साहित्य और भाषा मे सम्पादन और अनुवाद की गति ठहरी हुई-सी नहीं दिखती। अब हमे नवीन ऊर्जा और ऊष्मा के साथ उस संस्कृत-धरोहर की गठरी खोलनी होगी, तभी सम्मान्य पं० शास्त्री के प्रति हमारी भावांजलि सार्थक सिद्ध होगी।”