महामारी के नए रूप को देखते हुए बचाव-इलाज के कुछ आसान उपाय

समय कभी-कभार ही निकल पा रहा है, पर कई मित्रों ने सन्देश भेजे हैं कि महामारी के नए रूप को देखते हुए बचाव-इलाज के कुछ आसान उपाय मैं ज़रूर सुझाऊँ, ताकि लोगों की कुछ मदद हो सके। आज कुछ आसान-से नुस्ख़े लिख रहा हूँ, जिन्हें मित्रगण ख़ुद के लिए और सावधानीपूर्वक अपने परिचितों पर भी आज़मा सकते हैं। ये नुस्ख़े ‘ओमि’ और ‘क्रॉन’ मिलाकर जो बने, उससे आपकी रक्षा करेंगे। मैं जान-बूझकर इन दोनों शब्दों को मिलाकर नहीं लिख रहा हूँ, क्योंकि नुस्ख़ा बताने पर मेडिकल माफ़िया पोस्ट डिलीट करवाने पर लग ही जाएगा, अँग्रेज़ों के बनाए मैजिक रेमेडी एक्ट का सहारा लेकर गिरफ़्तार भी करवाने पर लग जाए तो ताज्जुब नहीं। डॉ. बिस्वरूप रॉय चौधरी की अन्तरिम जमानत रद्द कर दी गई है और उन पर गिरफ़्तारी की तलवार लटक ही रही है। आरोप है कि डॉ. बिस्वरूप गम्भीर बीमारियों का अवैज्ञानिक इलाज कर रहे हैं। मतलब यह कि आप जीवन भर भाँति-भाँति के रसायनों से बनी दवाएँ खाते रहें और ठीक से कभी ठीक न हो सकें, तो यह वैज्ञानिक इलाज है; और अगर, खानपान सही करके गम्भीर बीमारी से पूरी तरह उबर जाएँ और एलोपैथी दवाएँ पूरी तरह बन्द करनी पड़ जाएँ तो यह अवैज्ञानिक इलाज है। विज्ञान के युग में असली विज्ञान की छोड़िए, बस विज्ञान के ठेकेदारों की सुनिए और मानिए। इन धूर्तों को मूर्ख नेताओं का साथ मिल गया है…और क्या चाहिए!

ख़ैर, ‘ओमि’ नाम के ‘क्रॉन से बचने के लिए आसान उपाय कुछ यों हैं—

होम्योपैथी की दुकान से ये तीन दवाइयाँ लाएँ—
(1) Aconitum Napellus 30
(2) Heper Sulph-30
(3) Spongia Tosta-30

इन तीनों दवाओं को किसी बड़ी शीशी में मिलाकर रख लें। सवेरे-दोपहर-शाम यानी दिन में तीन बार दो-दो बूँद जीभ पर टपकाएँ। दवा लेने के आधा घण्टा पहले और बाद में कुछ भी खाने-पीने से बचना है।

यह नुस्ख़ा तब अच्छा काम करेगा, जब गले में खराश हो, बलगम फँसा-फँसा लगे, बार-बार खखारना पड़े और खाँसी की प्रवृत्ति बन रही हो। आजकल यही स्थिति आमतौर ज़्यादा दिखाई दे रही है। बीमारी का प्रसार चल रहा हो तो बचाव के लिए बस तीन दिन इसे प्रयोग करना है। बाद में पन्द्रह दिन बाद तीन दिन फिर कर सकते हैं। लम्बे समय तक अनावश्यक रूप से दवा नहीं लेनी है।

यह कोई नया नुस्ख़ा नहीं है। बोनिनहसन नाम के एक पुराने होम्योपैथ हुए हैं, जिन्होंने ही इसे इस तरह के लक्षणों में कारगर पाया था। ऐसे लक्षण किसी व्यक्ति में अगर कई वर्षों से हों, तो दवाओं की पोटेंसी 200 कर देनी चाहिए और दिन में सवेरे-शाम, यानी दो बार कुछ दिनों तक सेवन करना चाहिए।

यदि इसके साथ बुख़ार भी हो तो इस नुस्ख़े से कुछ अन्तर रखकर बायोकैमी का यह नुस्ख़ा भी प्रयोग करें—
(1) Ferrum Phos-6X
(2) Kali Mur-6X
(3) Silicea-12X

इन दवाओं की चार-चार गोलियाँ, यानी कुल बारह गोलियाँ एक कप गुनगुने पानी में डाल दें। कुछ क्षणों में ये गोलियाँ घुल जाएँगी। कप को ढँककर रखें, ताकि हवा का प्रवेश न हो। बुख़ार की तीव्र स्थिति में एक-दो चम्मच दवा पाँच-पाँच या दस-दस मिनट पर बार-बार दें। आराम मिलने लगे तो आधे घण्टे, फिर एक घण्टे और बाद में दो-दो या तीन-तीन घण्टे पर दवा दें। मरीज़ सो जाए तो सोते से जगाकर दवा नहीं देनी है। इसी के साथ याद रखें कि यदि मरीज़ को प्यास कम लग रही हो और मुँह का स्वाद कुछ कड़वा हो तो इस नुस्ख़े में Kali Sulph-6X भी मिला दें। अलबत्ता, चार दवाओं की स्थिति में इनकी केवल तीन-तीन गोलियाँ ही मिलानी काफ़ी हैं, यानी कुल बारह गोलियाँ पर्याप्त हैं।

लक्षणों के हिसाब से मेरी बताई पूर्व की दवाएँ, मसलन, जेलिसीमियम, आर्सेनिक अल्बम, पल्साटिल्ला वग़ैरह भी काम करेंगी। ज़रूरत पड़ने पर उन्हें प्रयोग किया जा सकता है।

अन्तिम बात। नए वैरियण्ट के कुछ मरीज़ों से मिलने के बाद मेरे अनुभव अच्छे-बुरे दोनों हैं। अच्छा अनुभव यह है कि अब मैं लोगों में वह डर नहीं देख रहा हूँ कि पॉजिटिव की रिपोर्ट पाते ही हाँफते-डाँफते अस्पताल की दौड़ लगाने लगें। दो साल में डर भी जैसे रिश्तेदार हो गया है। डर का स्तर शुरुआत वाला होता तो यह हल्का वायरस इतना हल्का न दिखता, जितना दिख रहा है। बहरहाल, अच्छी बात है कि लोग बेवजह अस्पताल नहीं जा रहे हैं और ज़्यादा सुरक्षित हैं।

बुरा अनुभव यह है कि ज़्यादातर लोग ‘वायरस-वायरस नाटक’ के क़ायदे से मूकदर्शक बन चुके हैं। मेडिकल माफ़िया भी टीके के पक्ष में माहौल बनाने के लिए नए-नए पैंतरे इस्तेमाल कर रहा है और कामयाब है। दो दिन पहले दिल्ली की रिपोर्ट के बहाने एक और नया पैंतरा चलाया गया है। रिपोर्ट के हिसाब से दिल्ली में बीते चार दिनों में महामारी की वजह से जो लोग अस्पतालों में मौत के शिकार हुए, उनमें बिना टीका वाले लोगों की सङ्ख्या ज़्यादा थी। एक या दो डोज़ टीका लगे सिर्फ़ 27 प्रतिशत लोग ही मौत के शिकार हुए। रिपोर्ट प्रायोजित तरीक़े से तैयार की गई है। इसका जाल-बट्टा तो ख़ैर एक डॉक्टर और मेडिकल रिप्रेजेण्टेटिव की बातचीत ने बढ़िया ढङ्ग से खोला, पर यह लम्बा विषय है। यहाँ मेरी दिलचस्पी इस बात में है कि टीके के पक्ष में माहौल बनाने के चक्कर में रिपोर्ट जारी करने वालों ने टीके की ही असलियत खोल दी है। हम जानते हैं कि टीके के पक्ष में दिए गए सारे तर्क एक-एक ख़ारिज़ होते ही रहे हैं, पर एक सबसे मज़बूत तर्क आज तक यह दिया जाता रहा है कि टीका लगने के बाद भले ही सङ्क्रमण हो जाए और अस्पताल भी जाना पड़े, पर सौ प्रतिशत गारण्टी है कि टीका बीमारी को गम्भीर नहीं होने देगा और हर हाल में मरने से बचा लेगा। असल में यही तर्क दिल्ली की रिपोर्ट में अनजाने में धराशायी हो गया है। रिपोर्ट के मुताबिक महामारी से मरने वालों में 27.2 प्रतिशत लोग वे थे, जो टीके की एक या दो डोज़ ले चुके थे। मतलब कि 97 में 27 लोग वे मरे, जिन्हें टीका लगा था, यानी टीके वाले भी एक-दो नहीं, सौ में सत्ताईस मर सकते हैं।

कुल मज़ा यह है कि वायरस (यों होम्योपैथी और नेचुरोपैथी के हिसाब से मानो तो वायरस, नहीं तो मज़ाक़) ख़ुद से कमज़ोर हो रहा है, जैसा कि सैकड़ों साल के महामारियों के इतिहास में देखा जाता रहा है; सम्भवतः इस साल यह शान्त भी हो जाए, क्योंकि टीके का लक्ष्य लगभग पूरा होने को है; पर अन्त में श्रेय टीके को दिया जाएगा कि टीके ने सब सँभाल लिया, वरना दुनिया का पता नहीं क्या होता!

—सन्त समीर (प्रख्यात पत्रकार-प्राकृतिक चिकित्सक)