‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज की ओर से आयोजित बौद्धिक परिसंवाद

पं० बालकृष्ण भट्ट की साहित्यिक-सामाजिक चेतना देखते ही बनती थी

प्रख्यात निबन्धकार-पत्रकार- संस्कृतिधर्मी पण्डित बालकृष्ण भट्ट की पुण्यतिथि पर आज (२० जुलाई) ‘सर्जनपीठ’ की ओर से ‘पं० बालकृष्ण भट्ट का साहित्यिक और पत्रकारीय जीवन’ पर एक अन्तर्जालीय बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन किया गया था।

रमाशंकर श्रीवास्तव

वरिष्ठ पत्रकार रमाशंकर श्रीवास्तव ने कहा, “पं० बालकृष्ण भट्ट जी ने अपने पत्रकारीय कर्मठ कर्म को जिस रूप में रेखांकित किया है, वह वर्तमान की पत्रकारिता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हैं। उन दिनों पत्रकारिता उतनी विकसित नहीं थी, जितनी कि आज है। भट्ट जी की पत्रकारिता युगबोध और जीवनमूल्यों से सम्बद्ध थी, जबकि आज की नैतिकहीन है। पत्रकारीय मूल्यों को प्राथमिकता यदि पत्रकार में नहीं है तो उसका पत्रकारकर्म व्यर्थ है, पं० भट्ट जी इस अवधारणा के पोषक थे। यही कारण है कि आर्थिक वैषम्यपूर्ण अवस्था में भी उन्होंने आततायी अँगरेज़-सरकार के सम्मुख घुटने नहीं टेके थे।”

डॉ॰ प्रदीप चित्रांशी

साहित्यकार डॉ० प्रदीप चित्रांशी का विचार है, “भावों के अनुकूल शब्दों का चुनाव करने में माहिर पण्डित बालकृष्ण भट्ट हिन्दी के सफल पत्रकार, उपन्यासकार, नाटककार, निबन्धकार के साथ-साथ गद्य-कविता के जनक भी थे। हिन्दीभाषा-विस्तार-हेतु विषय और प्रसंग के अनुसार अपनी लेखनी से हिन्दी-गद्य को न केवल नयी दिशा दी है, बल्कि उन्होंने इलाहाबाद से युग प्रवर्तक पत्र भी निकाला था, जिससे समाज को गद्य-लेखन की प्रेरणा मिली। उन्होंने काशी से ‘कवि वचन सुधा’ के प्रकाशन के अलावा ‘हरिश्चन्द मैग्जीन’ और ‘बाल बोधनी’ भी निकालने के साथ-साथ इलाहाबाद की धरती से तैंतीस वर्षों तक ‘हिन्दी प्रदीप’ का प्रकाशन-सम्पादन कर पत्रकारीय अलख जगाते रहे।

१८७७ ई० में इलाहाबाद के कुछ शिक्षित युवाओं ने ‘हिन्दीप्रवर्द्धनी’ नामक संस्था गठित की थी और निश्चय किया था कि पाँच-पाँच रुपये का चन्दा एकत्र कर, मासिक पत्र प्रकाशित की जाये। इस तरह ‘हिन्दी प्रदीप’ का जन्म हुआ था। भट्ट जी ने घाटा सहकर भी ‘प्रदीप’ को जगाये रखा था।”

डॉ० कृपाशंकर पाण्डेय

प्राध्यापक और विचारक डॉ० कृपाशंकर पाण्डेय ने बताया, “पण्डित बालकृष्ण भट्ट, प्रयाग की धरती पर जन्मे एक ख्यातिलब्ध साहित्यकार और विशिष्ट पत्रकार थे। उनकी विद्यालयीय शिक्षा तो दसवीं कक्षा तक ही हुई थी; परन्तु अपने स्वाध्याय और अध्यवसाय के बल पर वे हिन्दीसाहित्य के देदीप्यमान नक्षत्र बने। पण्डित भट्ट जी हिन्दी गद्य और गद्य-प्रधान काव्यरचना में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। निबन्ध के क्षेत्र में उन्होंने लेखनी चलायी और ‘आँख’ ‘कान’, ‘नाक’ तथा बातचीत जैसे सूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक विषयों पर लेखन कर हिन्दीसाहित्य-जगत् में अपनी विद्वत्ता का लोहा मनवाया। साहित्यिक दृष्टि से उनके निबन्ध अत्यन्त उच्चकोटि के हैं, जो शिक्षित समाज का मार्गदर्शन करते हैं। तत्कालीन समाज की कुरीतियों और अन्धविश्वास को दूर करने के लिए उन्होंने अनेक सामाजिक निबन्धों की रचना की। पण्डित भट्ट जी, भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द से प्रभावित थे और ‘भारतेन्दु-युग’ के लेखकों में उनका उल्लेखनीय स्थान है।”

उर्वशी उपाध्याय

कवयित्री उर्वशी उपाध्याय का विचार है, “पं० भट्ट जी ने जीवन-मूल्यों के प्रति दृढ़ता के कारण शिक्षक-जीवन का त्याग कर, हिन्दी-साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने क़दम बढ़ाये थे। मूलतः निबन्धकार, उपन्यासकार तथा साहित्यिक पत्रकारिता को अपनानेवाले पण्डित जी ने कुछ नाटक भी लिखे थे, जो अतीव चर्चित थे। उन्होंने संस्कृत-व्याकरण के क्षेत्र में बहुत कार्य किये थे। संस्कृत- साहित्य का प्रचार-प्रसार तो किया ही, श्यामसुन्दर दास-द्वारा हिन्दी- शब्दकोश में भी उन्होंने सहयोग दिया था। उन्होंने ‘हिन्दी प्रबोधिनी सभा’ की स्थापना कर, हिन्दी के प्रति अपने समर्पण को स्थायित्व दिया तो वहीं ‘भारती भवन’, ‘लोकनाथ महादेव’ की स्थापना कर, प्रयाग के साहित्यिक धरातल पर बिखरे अनमोल पृष्ठों को भी सहेजा था।”

डॉ० प्रदीप भटनागर

वरिष्ठ पत्रकार डॉ० प्रदीप भटनागर का मानना है, “मेरी दृष्टि में पण्डित बालकृष्ण भट्ट ने पत्रकारिता और साहित्य की भाषा गढ़ने, उसका स्वरूप निर्धारित करने तथा भाषा के गुणों को स्थापित करने का महत् कार्य किया है। इसे इस तरह भी कहा अथवा समझा जा सकता है कि भट्ट जी पत्रकारिता और साहित्य के माध्यम से हिन्दी के स्वरूप को सुदृढ़ कर रहे थे। पत्रकारिता की उनकी भाषा सर्वसामान्य को समझ में आ सकनेवाली अरबी और फ़ारसी के शब्दों से युक्त प्रचलित भाषा थी। उसमें पूर्वीपन था तो निबन्धों की भाषा तत्सम शब्दों से युक्त परिमार्जित थी। भाषा का सरल प्रवाह ऐसा कि आप उसे गद्य काव्य कह सकते हैं। विषय और आवश्यकता के अनुरूप भाषा का यह रूप आज भी हिन्दी साहित्यकारों और पत्रकारों के लिए मानक है।”

कुँवर तौक़ीर अहमद ख़ान

उद्घोषक कुँवर तौक़ीर अहमद ख़ान ने कहा, ” भारतेन्दु-युग के प्रतिनिधि निबन्धकारों और पत्रकारों में पण्डित बालकृष्ण भट्ट का सर्वोच्च स्थान रहा है। ‘हिन्दी प्रदीप’ मासिक के सम्पादक के रूप में जहाँ-जहाँ उन्होंने हिन्दी की बहुविध सेवा की थी, वहीं सामाजिक, राजनीतिक साहित्यिक आदिक विषयों पर एक हज़ार अधिक निबन्ध लिखे थे। उनकी तुलना अँगरेज़ी के प्रसिद्ध निबन्धकार चार्ल्स लैम्ब से की जाती है। उनके निबन्धों में बुद्धि तत्त्व के साथ-साथ अनुभूति तत्त्व, कल्पना तत्त्व तथा शैली तत्त्व का समावेश है। उन्होंने निबन्ध, नाटक, काव्य, पत्र, उपन्यास तथा अनुवाद से हिन्दी- साहित्य को समृद्ध किया है। पद्यात्मक शैली में गद्य-लेखन का सूत्रपात भट्ट जी ने ही किया था। तत्सम शब्दों के साथ-साथ तत्कालीन उर्दू, अरबी, फ़ारसी तथा अँगरेज़ी के शब्दों को ग्रहण करके उन्होंने हिन्दी भाषा को समृद्ध किया था। पं० भट्ट जी का एक पत्रकार और साहित्यकार के रूप में हिन्दी-साहित्य में अक्षुण्ण स्थान है।”

पूर्णिमा मालवीय

प्राचार्या डॉ० पूर्णिमा मालवीय का कहना था, ” पं० बालकृष्ण भट्ट ने अपने व्यावहारिक जीवन में नारी-जाति को शिक्षित करने के अनवरत प्रयास किया था, जिसका परिणाम रहा, उनके द्वारा मालवीय नगर, इलाहाबाद में बालिकाओं के लिए गौरी पाठशाला इण्टर कॉलेज की स्थापना कराना। उनका मानना था कि जब तक देश की बच्चियाँ शिक्षित नहीं होंगी तब तक देश का उत्थान नहीं हो सकता। उन दिनों बालविवाह, सह-भोज का विरोध, धर्मान्धता जातिपाँति का विरोध, छुआछूत आदिक ऐसी कुरीतियाँ थीं, जिनका उन्होंने ब्राह्मण होते हुए भी डटकर विरोध किया था। भट्ट जी सच्चे अर्थों में देशभक्त थे। वे राजभक्ति को क्षणिक सुख मानते थे, जबकि देशभक्ति उनका परम लक्ष्य था। अपने विचारों से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। यही कारण था कि अपनी रचनाओं के माध्यम से सदैव उन्होंने धर्म और अर्थ के नाम पर होनेवाली लूट का सदा विरोध किया था।”

आचार्य पं॰ पृथ्वीनाथ पाण्डेय

परिसंवाद-आयोजक आचार्य पं॰ पृथ्वीनाथ पाण्डेय का मत है, “हिन्दी खड़ी बोली को साहित्य-संसार में समादृत करनेवाले पण्डित बालकृष्ण भट्ट की साहित्यिक और पत्रकारीय गति विलक्षण थी। यही कारण था कि साहित्य-चेतना के साथ-साथ उन्होंने समाज-जागरण का सिद्धान्त और व्यवहार-स्तर पर बहुविध निर्वहण किया था। ‘साहित्य सुमन’, ‘भट्ट निबन्धावली’, ‘नूतन ब्रह्मचारी’, ‘बाल-विवाह’, ‘चन्द्रसेन’ आदिक कृतियों के प्रणयन उनकी विचारजीविता और हृदयहारिता के अपूर्व संगम-सदृश लक्षित होते हैं।”

अन्त में, परिसंवाद-आयोजक ने सहभागियों के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की थी।