आज (५ जून) ‘विश्वपर्यावरण-दिवस’ है।
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
वैश्विक पर्यावरण की स्थिति अति भयावह है। हमारा पञ्चतत्त्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश एवं वायु) विषाक्त हो चुका है। यही कारण है कि धरती की उष्णता, अतिवृष्टि-अनावृष्टि, दावानल-बड़वानल, आकाश का फटना, वायुमण्डल मे नाना गैसीय संघर्षण स्थावर-जंगम को आकुल किये हुए है। उसी अकुलाहट का परिणाम और प्रभाव है कि मनुष्य अभ्यर्थना की मुद्रा मे पाठ करता रहता है :―
“ऊँ द्यौ शान्तिरन्तरिक्ष: शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्ति: रोषधय: शान्ति: वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिब्रह्मा शान्ति: सर्व: शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि।।
ऊँ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ऊँ।”
इस अभिमन्त्रण के अनन्तर भी आज जड़-चेतन की विकलता थामे नहीं थमती :― कोई मन से व्याकुल है तो कोई तन से।
हम मनसा-वाचा-कर्मणा अपनी प्रकृति के प्रति निष्ठावान् नहीं हैं। यही कारण है कि हमारे मन्त्रोच्चारण निष्फल सिद्ध होते आ रहे हैं।
जनसामान्य भगवान्, अल्लाह, परमेश्वर, वाहे गुरु, महावीर, बुद्धादिक को अपने-अपने धारणानुसार ‘भगवान्’ मानता आ रहा है; परन्तु उसे जानता नहीं। सत्य तो यह है कि हमारे जीवनतत्त्व (पञ्चतत्त्व) से बढ़कर कोई ‘भगवान्’ है ही नहीं। हम उसे देखते हैं; उसका अनुभव करते हैं; उसका उपभोग करते हैं; उसका उपयोग करते हैं तथा उसका संस्पर्श कर , अपने जीवन को धन्य करते हैं।
क्या ऐसी देन उस भगवान् मे है, जिसे पूजने के लिए जन-जन धन-सम्पत्ति लेकर जाता है; जिसका दर्शन पाने के लिए टिकट लेकर जाना पड़ता है?
प्रकृति हम पर अपनी सम्पूर्ण विभूति लुटा रही है और हम उसी के साथ अनाचार करते आ रहे हैं? इस कृत्य का भुगतान तो करना ही पड़ेगा।
आज ‘विश्वपर्यावरण-दिवस’ है। अपनी अनन्या पराप्रकृति के चरणो मे सम्बन्धित कृतियाँ रखता हूँ।
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ५ जून, २०२३ ईसवी।)