लेखक-प्रकाशक सारस्वत सृष्टि का सर्जक होता है

पुस्तकें ‘जीवन से मरण तक’ का आख्यान करती आ रही हैं। शब्द कभी अभिधा, कभी व्यंजना तो कभी लक्षणा के अदृश्य परिधान धारणकर पाठक-पाठिकावर्ग को गुदगुदाते आ रहे हैं; ज्ञानसिन्धु मे अवगाहन करने के लिए प्रेरित करते आ रहे हैं तो कभी कटाक्ष से शरीर को छलनी करते रहने का अनुभव भी कराते आ रहे हैं। यही शब्दकौतुक है; शब्दचमत्कार तथा शब्द-माहात्म्य (‘महात्म्य’ अशुद्ध है।) भी। शब्द जब प्रफुल्ल (‘प्रफुल्लित’ अशुद्ध है।) होते हैं तब अपनी ‘सम्पदा’ का आभास कराते हैं और जब प्रतिकूल होते हैं तब ‘विपदा’ के साये के रूप मे लक्षित होते हैं; यहीं से ‘महिमामण्डन’ और ‘महिमामर्दन’ का द्विधुरीय आकाश दिखता है।

आज (३१ दिसम्बर) एंग्लो बंगाली इण्टर कॉलेज, प्रयागराज-परिसर मे आयोजित पुस्तक-मेला का अन्तिम दिन है; मन माना नहीं और चला गया। दो उद्देश्य थे :– प्रथम, विगत १० दिनो तक घर मे बैठे-बैठे ऊब चुका था; कारण की देह-स्थिति अनुकूल नहीं है, फिर भी कायिक शिथिलता को ऊर्जा देना भी अपरिहार्य हो चुका था तथा द्वितीय, तीन दिनो पूर्व ‘सामयिक प्रकाशन’, दिल्ली के स्वत्त्वाधिकारी प्रियवर महेश भारद्वाज जी से भेंट करने का दिन और समय निर्धारित हो चुका था।

‘सामयिक प्रकाशन’, दिल्ली के साथ तबसे आत्मीय सम्बद्धता रही है, जब उस प्रतिष्ठान के स्वामी प्रियवर महेश भारद्वाज जी के स्मृति-शेष पिताश्री प्रकाशन-दायित्व का सम्यक् निर्वहण कर रहे होते थे, तब मेरी वहाँ से एक भी पाण्डुलिपि मुद्रित (‘पुस्तक मुद्रित’ अनुपयुक्त शब्द है।) नहीं हुई थी; परन्तु जब भी दिल्ली-प्रवास पर जाता था, उनसे भेंटकर संवाद किया करता था।

प्रियवर महेश भारद्वाज जी गुणग्राही व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वहाँ से मेरी चार पाण्डुलिपियाँ पुस्तक के रूप मे प्रकाशित हो चुकी हैं :– (१) शुद्ध हिन्दी : कैसे बोलें और लिखें (२) आधुनिक हिन्दी-व्याकरण (३) प्रयोजनमूलक हिन्दी (४) मीडिया और प्रेस-विधि।

प्रयागराज-स्थित पुस्तक-मेला मे आज (३१ दिसम्बर) प्रियवर महेश भारद्वाज जी के साथ आत्मीयमयी भेंट हुई थी। यद्यपि शीत का प्रकोप झाँकता दृष्टिगत हो रहा था तथापि शब्दों की ऊर्जा और ऊष्मा से देहयष्टि नहायी हुई-सी प्रतीत हो रही थी।

हमने पारिवारिक कुशल-क्षेम विनिमय करने के अनन्तर/पश्चात् (यहाँ ‘उपरान्त’ का प्रयोग अशुद्ध है।) विविध विषयक वार्त्ता की थी, जिनमे शब्दग्रहण करने के प्रति पाठकीय मानसिकता, क्रय-विक्रयनीति और शासकीय दृष्टिकोण, प्रयागराज की बुद्धि-विलासिता, प्रकाशन-योजना एवं क्रियान्वयन्, देश-देशान्तर का बौद्धिक स्वास्थ्य, हमारी लेखकीय गतिशीलता-योजनादिक विषय प्रमुख रूप से सम्मिलित रहे।

पुस्तक-मेले मे कई प्रकाशन-प्रतिष्ठान दिख रहे थे; परन्तु मूल रूप से ८-९ ही प्रकाशन थे, जिन्हें वास्तविक प्रकाशक कहा जा सकता था; जैसे― सामयिक प्रकाशन, साहित्य भण्डार, राजपाल ऐण्ड संस, सस्ता साहित्यमण्डल, सम्यक् प्रकाशन, गीता प्रेस, ओसवाल आदिक।

रविवार होने के कारण प्रयागराज-वासियों का गमनागमन (‘आवागमन’ अशुद्ध शब्द है।) सुखद दृश्य प्रस्तुत करता प्रतीत हो रहा था।

अन्तत:, आत्मीयमय परिवेश से निकलकर हम दोनो अपने-अपने गन्तव्य की ओर थे।

(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३१ दिसम्बर, २०२३ ईसवी।)