हिन्दीसाहित्य-जगत् के ‘निराले’ किरदार थे, शैलेश मटियानी

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  विरले ऐसे लोग होते हैँ, जो भीड़ से बिलकुल अलग-थलग दिखायी देँ; क्योँकि उस पात्रता की प्राप्ति के लिए स्वयं को बहुत तपाना पड़ता है; जय-पराजय और मान-अपमान की परवाह किये बिना अपना रास्ता ख़ुद बनाना पड़ता है, जोकि गरल पीकर भी जीवन मे रहने-जैसा होता है। यदि वह व्यक्ति रचनाजीवी होता है तो उसके लिए वह मार्ग संवेदना और कष्टसाध्य होता है; क्योँकि सर्जनधर्मी सत्यनिष्ठ और स्वाभिमानी होता है और उसे पग-पग पर तरह-तरह के अड़चनो का सामना करना पड़ता है। उसके मार्ग मे इतने अवरोध ला खड़े कर दिये जाते हैँ कि उसका विचार और चिन्तन-अनुचिन्तन-पक्ष गौण-सा प्रतीत होने लगता है। उसके अपने ही लोग विश्वासघात कर, उसका सर्वस्व समाप्त कर देने पर तुल जाते हैँ। इसके पीछे उसका बिना किसी की चिन्ता किये "डंके की चोट पर'' अपनी उन्मुक्त अभिव्यक्ति का परिणाम और प्रभाव दिखता है। जो न किसी मान-सम्मान, पदक-पुरस्कार की चाह रखता हो और जो अपनी प्रतिभा और मेधा के बल पर अपना सारस्वत पुरुषार्थ रेखांकित करता हो, वह निडर-निर्भय रहकर अभिव्यक्तिपथ पर अग्रसर रहता है। ऐसा ही रचनाकार अपने सत्साहित्य के माध्यम से जनकल्याण के प्रति सन्नद्ध रहता है। उसके प्रति न तो शासकीय और न ही अशासकीय संघटन, संस्था, संस्थान इत्यादिक सह और सम-अनुभूति रखते हैँ। ऐसे ही एक साहित्य-सर्जक के जीवन-दर्शन से अवगत होने के लिए उनके एक लेख, जिसका शीर्षक है, 'मैं और मेरी रचना प्रक्रिया', का एक प्रासंगिक अंश का बोध करना यहाँ प्रासंगिक हो जाता है। उन्होँने लिखा था, "मैं जो कुछ भी हूँ जैसा भी हूँ– इसे औरों से छिपाकर, या अपनी स्थिति पर कृत्रिमता का आवरण चढ़ाकर, जीने का प्रयास मैंने कभी नहीं किया और न व्यक्तिगत रूप से कभी भी एक साधारण मनुष्य से इतर स्वयं को समझा ही है। अपने को औरों से दुरा-छिपाकर रखना, या कुछ अलग-अलग रहने की बात सोचना भी मुझे अटपटा लगता है।  मेरे साहित्य-सृजन के मूलाधार सदैव एकदम साधारण मनुष्य ही रहे हैँ। अस्तु, उन्हीं के बीच रहकर, उन्हीं की तरह अकृत्रिम जीवन जीने मे मुझे सुख मिलता है।''

ऐसे ही कर्त्तृत्व के धनी थे, स्वनामधन्य शैलेश मटियानी।अल्मोड़ा जनपद के बाड़ेछिना गाँव मे १४ अक्तूबर, १९३१ ई० को जन्म लेनेवाले शैलेश मटियानी अत्यन्त अभावपूर्ण जीवन-यापन करते रहे। यही कारण है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा सुव्यवस्थित क्रम मे न हो सकी थी। हमे मालूम होना चाहिए कि जब पेट की भूख सिर चढ़कर बोलती है तब मनुष्य जीवन जीने के लिए किसी स्तर तक की बेचारगीभरी स्थिति से दो-चार होने के लिए बाध्य और विवश हो जाता है। उसके पीछे उसका उद्देश्य ही उसके लिए बाधक बन जाता है। यही कारण है कि शैलेश मटियानी ने अपने उद्देश्य की सम्पूर्ति के लिए जिस स्तर का जीवन जीया था, उसे सुन-समझकर जो शब्दचित्र प्रत्यक्ष होने लगता है, उससे लगता है, मानो कलेजा शरीर से निकलकर हाथ मे आ गया हो। 
 
शैलेश मटियानी हर हाल मे अपने भीतर के लेखकीय व्यक्तित्व को बहुविध स्थापित करना चाहते थे। मुझे उनसे  अनेक बार मिलकर संवाद करने और उनकी जीवनयात्रा से सम्बन्धित संस्मरण सुनने के अवसर प्राप्त हुए थे। ऐसा लगता था, मानो वे किसी के साथ अपनी कथा-व्यथा को साझा कर, हलका हो लेना चाहते होँ। उनसे सुने हुए अनेक संस्मरण हैँ, जिसका संग्रह एक पुस्तक का रूप ले सकता है। 

रमेश मटियानी का मूल नाम रमेशचन्द्र सिंह मटियानी था। उनकी माता जी ने जीवन के अन्तिम समय मे रमेश से कहा था, "बेटा! तेरे भाग्य मे दु:ख ज़रूर है; लेकिन धैर्य रखकर जीने की कोशिश करना; ईश्वर तेरी मदद करेगा।" उनकी माँ का कथन सत्य सिद्ध हुआ था। रमेश मटियानी लेखक बनने के उद्देश्य को धारण करते हुए, बम्बई पहुँच गये थे। वे वहाँ इधर-उधर भटकते रहे। उनकी इच्छा थी कि कोई तो ऐसा मिले, जो उनके भीतर के लेखक की पहचान बना सके। उनके साथ उनकी माँ का कथन भी रहा। शैलेश मटियानी के पास जितने रुपये थे, सब समाप्त हो गये थे। उनके लिए ख़र्चीले बम्बई मे जीवन-भरण कर पाना मुश्किल दिख रहा था। उन्हेँ अपनी माँ के कथन को सत्य बनाये रखना था और ईमानदारी के साथ उस अभावग्रस्त परिस्थिति मे अपने जीवन की भी रक्षा करनी थी। यही कारण है कि शैलेश मटियानी को बम्बई-प्रवास मे रहने-खाने के लिए अपने शरीर से ख़ून निकलवाने पड़े थे। उनके शरीर से एक सेर ख़ून निकाले गये थे, जिसके लिए उन्हेँ बीस रुपये मिले थे। पहले मापक सेर हुआ करता था। 
वाह! लेखक बनने की वैसी दीवानगी विश्व-साहित्यजगत् मे एकमात्र होगी; क्योँकि अपने बम्बई-प्रवास की अवधि मे रमेश मटियानी ने पाँच बार अपने ख़ून बेचे थे और प्राप्त धनराशि से उदरपूर्ति किया करते थे तथा अपने भीतर के लेखक को सार्वजनिक करने के लिए उचित माध्यम और मंच की तलाश करते थे।

उनके सिर पर लेखक बनने का एक विचित्र क़िस्म का भूत  सवार था। जब उन्हेँ बम्बई मे लेखक बनने की दिशा मे कोई सफलता प्राप्त नहीँ हुई थी तब उन्होँने दिल्ली जाने का निर्णय किया था। दिल्ली पहुँचने के बाद उनके भीतर के लेखक ने अपना प्रभाव दिखाना आरम्भ कर दिया था। वे वहाँ रमेश सिंह मटियानी के नाम से लेखन करने लगे थे। इसके पीछे उन्हेँ कितने संघर्ष करने पड़े थे, उस पर दृष्टिपात करना प्रासंगिक जान पड़ता है।

रमेश एक होटल-मालिक के पास पहुँचे थे। उन्होँने अपने जीवन को आगे बढ़ाने के लिए कोई काम माँगा था; क्योँकि वे होटल से सम्बन्धित किसी प्रकार का काम करने के लिए प्रस्तुत थे। होटल-स्वामी ने उनकी दशा और दिशा देखकर उनपर दया की थी। उन्हेँ होटल मे प्लेट साफ़ करने का काम दिया गया था; लेकिन उनके साथ क्रूर विडम्बना वहाँ भी बनी रही। प्लेट साफ़ करते समय अचानक उनके हाथ से एक प्लेट गिरकर टूट गया था, जिसके कारण उन्हें वहाँ से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था, फिर भी वे अपने लक्ष्य से डिगे नहीँ थे। लेखक बनने के जिस दीवानेपन ने उन्हेँ दिल्ली पहुँचा दिया था, वह धीरे-धीरे रंग लाने लगा था। वे दिल्ली मे 'अमर कहानी' पत्रिका के सम्पादक ओमप्रकाश गुप्ता से मिले। उनका गुप्ता के साथ एक लम्बा संवाद हुआ था; क्योँकि गुप्ता ने ''गुदड़ी मे लाल' को पहचान लिया था। उन्होँने उनकी प्रतिभा को परखा और उनके लिए अपने घर मे ही रहने की व्यवस्था कर दी थी। वे उस पत्रिका के लिए अपने नाम और छद्म नामो से कहानियाँ लिखने लगे थे; परन्तु जाने क्योँ, उनके मन ने वहाँ भी विद्रोह कर दिया था।
  
यद्यपि रमेश मटियानी को लेखक बनने के लिए तरह-तरह की कठिनाई का सामना करना पड़ता था तथापि वे अवसर मिलने पर भी एक जगह ठहरकर  अपनी प्रतिभा को बहुविध रेखांकित नहीँ कर पाते थे। इससे सुस्पष्ट हो जाता है कि वे "कहीँ न बँधते, मुक्त विचरते" के कितने पक्षधर थे। यही कारण था कि  'रंगमहल' पत्रिका के लिए बहुत दिनो तक कहानियाँ लिखनेवाले शैलेश सिँह मटियानी वहाँ भी ठहर न सके; उनका मन नहीँ रम पा रहा था।
 
उन दिनो इलाहाबाद का साहित्यिक परिवेश अत्यन्त समृद्ध था। उनकी भेँट इलाहाबाद के प्रकाशन-प्रतिष्ठान 'किताब महल' के स्वामी श्रीनिवास अग्रवाल से हुई थी। वर्ष १९६५ से १९९२ तक वे इलाहाबाद के अनेक मोहल्लोँ मे रहे, जिनमे शामिल थे :– कर्नलगंज, मेहँदौरी तथा एलनगंज, जहाँ उन्होँने रहकर अपनी रचनाशीलता का परिचय दिया था। इलाहाबाद मे उनके रहने की अवधि लगभग २७ वर्ष की रही। उस बीच उनकी भेँट उपेन्द्रनाथ अश्क, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव,  मार्कण्डेय इत्यादिक प्रतिष्ठित साहित्यकारोँ से हुई थी।

रमेश मटियानी तत्कालीन साहित्यकारोँ की मानसिकता को अच्छी तरह से समझ चुके थे। यही कारण था कि उनका जनवादी लेखक संघ, प्रगतिवादी लेखक संघ, जनवादी संस्कृति मंच इत्यादिक संघटनो से मोहभंग हो चुका था। यही कारण था कि वे समस्त संघटन उन्हेँ दक्षिणपन्थी मानते थे; क्योँकि वे उन संघटनो के विचार-व्यवहार से पृथक् रहकर अपनी स्वतन्त्र सत्ता को ही मान्यता देने के प्रति आस्थावान् थे। यही कारण था कि वे उन संघटनो मे शामिल साहित्यकारोँ को 'गिरोह' कहा करते थे। उन्होँने कथित संघटनो का योँ ही विरोध नहीँ किया था, बल्कि उसके पीछे ठोस कारण थे। वे साम्यवाद (मार्क्सवाद) के उस सिद्धान्त को स्वीकार नहीँ करते थे, जिसमे कहा गया है :– आप हमारे संघटन मे नहीँ हैँ; हमारे विचार आपके विचार नहीँ हैँ तो हम आपको ख़ारिज़ करते  हैँ। शैलेश मटियानी इसे 'वैयक्तिक स्वतन्त्रता' के लिए घातक मानते थे और अधिनायकवादी प्रवृत्ति भी।
 
वे इलाहाबाद पहुँचे थे, जहाँ उन्होँने अनेक कारुणिक घटनाओँ के बाद भी अपना धैर्य नहीँ खोया था। उन्होँने अपने संयम को बनाये रखा था। इलाहाबाद उनका प्रवास बना, फिर आवास बन गया। इलाहाबाद के कर्नलगंज मुहल्ले रहते हुए उन्होँने अपने भीतर के कहानीकार को पूरी तरह से जगा दिया था। इलाहाबाद के प्रकाशक और साहित्यकार डॉ० अभय मित्र यथासामर्थ्य उनकी कृतियोँ का प्रकाशन करते रहे, जिनका मै साक्षी बना रहा। उनके ३० उपन्यास, २८ कहानी-संग्रह, १६ बालसाहित्य तथा वैचारिक लेखोँ के संग्रह इस बात के प्रमाण हैँ कि इलाहाबाद मे उनका लेखन चरम पर रहा। 

इलाहाबाद ही उनके जीवन के अन्त का कारण भी बना। वर्ष १९९२ मे उनके पुत्र की हत्या कर दी गयी थी, जिसके कारण उन्होँने पूरी तरह से अपना  मानसिक संतुलन खो दिया था। जीवन के अन्तिम दिनो मे वे अपने मूल घर हलद्वानी लौट आये थे और २४ अप्रैल, २००१ ई० को पुत्र-वियोग को साथ लिये इस लोक से चल बसे थे।

हम उनकी सारस्वत यात्रा का स्मरण करते हुए, उनके उपन्यास ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’ के इस अंश को यहाँ प्रस्तुत करते हुए, उन्हेँ अपनी भावांजलि अर्पित करते हैँ :–
“सेठ लोग हज़ार मनुष्यों का रक्त निचोड़कर, कुछ चाँदी के टुकड़े पशुओं के लिए गोशाला-धर्मशाला बनाने के लिए दे दें, तो उनकी दया, धर्म-कीर्ति की दुन्दुभि चारों दिशाओं मे गूँजने लगती है। पर, ग़रीब अपने प्राणों की आहुति देकर भी मानवता के आदर्शों की रक्षा करता है, तो कहीं चर्चा तक नहीं होती। सेठ हज़ारों के गले मे स्वार्थ की छुरी फेर देते हैं, सरेआम इंसानियत का कत्ल कर देते हैं। वह केवल रोज़गार दिखाई देता है। गरीब गंजी-फ्रॉक बेचकर चार आने कमाने की कोशिश करे, वह कानून की दृष्टि मे अपराधी है। सेठ के पुण्य और गरीब के पाप दोनो तिल से ताड़ बनकर समाज के सामने आते हैँ।”

दुर्धर्ष जीवन जीनेवाले शैलेश मटियानी की संघर्षयात्रा यावज्जीवन बनी रही। उनकी पीड़ा उनकी ही कविता से झाँकती दृष्टिगत हो रही है :–
“मगर मन तो दहा जाता है
सत्य को इस तरह
सपनों से कहा जाता है।

ख़ुद ही सहने की जब
सामर्थ्य नहीं रह जाती
दर्द उस रोज़ ही
अपनों से कहा जाता है।
खंडित हुआ
ख़ुद ही सपन
तो नयन आधार क्या दें।”

अब यहाँ अनेक अनुत्तरित प्रश्न अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा और ऊष्मा के साथ तथाकथित वादोँ के झण्डाबरदारोँ और तत्कालीन सरकारोँ से प्रश्न कर रहे हैँ :– 
(१) जिस व्यक्ति ने साहित्य-उत्कर्ष के लिए अपना सर्वस्व होम कर दिया था, उसके हित मे तुम सबने क्या किये?
(२) स्वाभिमान का रक्षण करते हुए, लेखकीय अस्तित्व और अस्मिता को बनाये रखना अपराध है?
(३) इलाहाबाद एवं प्रयागराज मे तब से अब तक जितने साहित्यकार रहे हैँ, उनमे प्रथम पंक्ति मे दिखनेवाले लेखक-साहित्यकार शैलेश मटियानी की प्रतिष्ठा न कर, तथाकथित लेखक-साहित्यकारवर्ग ने अपना कौन-सा धर्म निभाया है?

हाँ, एक अति सामान्य परिवार का सर्जनधर्मी शैलेश मटियानी अपनी लेखकीय वृत्ति को जीवित बनाये रखने के लिए जिस प्रकार से तरह-तरह के अपमान के घूँट पीते रहे; परन्तु अपनी जीवटता और संघर्षशीलता के साथ बिना समझौता किये शब्दसंधान करते रहे, उसने शैलेश मटियानी को अति विशिष्ट की श्रेणी मे ला खड़ा किया है। यद्यपि देवभूमि (उत्तरांचल) मे जन्म लेकर ‘देवभूमि’ (प्रयाग) को अपनी मूल कर्मभूमि बनाकर, साहित्यसिद्धि करनेवाला शब्दसाधक सशरीर नहीँ है तथापि उसका रचनाकर्म ने उसे अमरत्व के उत्तुंग शिखर पर समासीन कर दिया है। ऐसे स्वाभिमानी तपस्वी की हम बार-बार प्रतिष्ठा करते हैँ; वन्दन और अभिनन्दन करते हैँ।

सम्पर्क-सूत्र :–
‘सारस्वत सदन’
२३५/११०/२-बी, आलोपीबाग़, प्रयागराज– २११ ००६
9919023870,
8787002712

prithwinathpandey@gmail.com