आज (१५ अक्तूबर) निराला का निधनदिनांक है।
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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इलाहाबाद का नाम आते ही प्रथम पंक्ति मे जिस साहित्यिक अक्खड़ हस्ताक्षर का नाम-रूप दिखता है, वह सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का है। मेदिनी, पश्चिमबंगाल मे जन्म लेनेवाले सूर्य कुमार ने ‘सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के नाम-रूप से इलाहाबाद को अपनी कर्मभूमि के रूप मे ग्रहण किया और कर्मयोगी का जीवन जीते हुए, यहीँ पर उनकी जीवनलीला भी समाप्त हो गयी। आरम्भ मे, उन्हेँ हिन्दी-भाषा का ज्ञान नहीँ था; किन्तु मात्र १४ वर्ष की अवस्था मे उनका मनोहरा देवी के साथ विवाह होना, उनके लिए सुखद था। ऐसा इसलिए कि उनकी पत्नी मनोहरा देवी एक सुसंस्कृत और विदुषी थीँ और धाराप्रवाह हिन्दी-वाचन करने मे दक्ष भी।उनकी प्रतिभा और मेधा देख-समझकर, सूर्य कुमार की बाँछें खिल उठीँ। वे उन्हीँ के पास बैठकर वाचन और लेखन-स्तर पर अपनी हिन्दभाषा परिष्कृत करते थे। उन्होँने पत्नी की ही प्रेरणा से २० वर्ष की अवस्था मे ‘जुही की कली’ की रचना की थी। जब सूर्य कुमार जब २३ वर्ष की अवस्था मे थे तब मनोहरा देवी का देहावसान हो गया था।
कालान्तर मे, वे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क मे आये, जहाँ से वे सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के रूप मे विश्रुत हुए थे। आचार्य ने १९२० ई० मे ‘बंगभाषा का उच्चारण’ नामक लेख प्रकाशित किया था।आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से ही उन्हेँ ‘श्रीराम कृष्ण मिशन’ की पत्रिका ‘समन्वय’ का सम्पादन-दायित्व सौँपा गया था। वहीँ उन्हेँ विवेकानन्द के जीवनदर्शन का बोध हुआ था। उन्होँने ‘सुधा’ का भी सम्पादन किया था। इस बीच, वे इलाहाबाद के तत्कालीन साहित्यकारोँ-कवियोँ के साथ जुड़ चुके थे। वे साहित्यकारवृन्द के आग्रह पर १९४२ ई० मे इलाहाबाद आ गये थे।
इलाहाबाद मे उन्हें सर्जन का अनुकूल धरातल मिला। दारागंज, इलाहाबाद मे पण्डे-पुजारी, मल्लाह, यादव, फल-फूल, साग-सब्ज़ी बेचनेवालोँ के बीच रहते हुए, निराला ‘खाँटी’ निराला बन चुके थे। यही कारण है कि यहीँ रहकर निराला ने ‘अपरा’, ‘नये पत्ते’, ‘बेला’, ‘अर्चना’, ‘आराधना’ आदिक काव्यकृतियोँ और ‘चतुरी चमार’, ‘सुकुल की बीबी’ इत्यादिक कथात्मक कृतियोँ का प्रणयन किया था।
प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, वाचस्पति पाठक इत्यादिक साहित्यकारोँ के साथ गहरा जुड़ाव उनके साहित्य-संसार को समृद्ध करता रहा।
महादेवी वर्मा एक प्रकार से उनकी देख-भाल करती थीँ। वे राखी के दिन प्रतिवर्ष महादेवी के हाथोँ से राखी बँधवाते थे। और एक दिन महाप्राण निराला, मतवाला तथा फक्कड़ निराला १५ अक्तूबर, १९६१ ई० को अपने चाहनेवालोँ को रोता-बिलखता छोड़, इस दुनिया से कूच कर गये, यद्यपि उनके ‘स्वर’ आज भी साहित्याकाश मे गुंजायमान हैँ :–
“अभी न होगा मेरा अन्त,
मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु दिगन्त
अभी न होगा मेरा अन्त।”
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १५ अक्तूबर, २०२५ ईसवी।)